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शरणागत शब्द मात्र समझने का विषय नहीं हैं यह संकलन, संक्रमण और संरक्षण की सुनियोजित व्यवस्था हैं। भगवान महावीर अपना ग्यारहवा वर्षावास पूर्ण करके सुंसुमारपुर में पधारे थे। उसके एक वनखंड में अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्टपर ध्यानावस्थित थे। उस समय चमरचंचामें पूरण नाम के बाल तपस्वी का जीव इन्द्र रुप में उत्पन्न हुआ। उसने अपने अवधिज्ञान में अपने उपर शकेंद्र को सिंहासनपर दिव्यभोगोपभोग के साथ उपस्थित देखा। यह देखकर वह स्वमान से हतप्रभ हो गया। उसे अर्थात् चमरेन्द्र को उनके ही सामानिक देवों ने परिचय दिया कि यह देवराज शकेंद्र हैं, सदा से यह अपने स्थान को भोग रहे है। यह सुनकर भी उसे संतोष नहीं हुआ वह भगवान के पास आकर बोला - भगवन! मैं आपकी शरण लेकर स्वयं ही देवेन्द्र शक्र को उसके वैभव से भ्रष्ट करना चाहता हूँ। ऐसा कहकर वैक्रिय रुप बनाकर सौधर्म देवलोक में गया और हुंकार करते हुए बोला कहाँ हैं? देवराज शक्रेन्द्र ? कहाँ हैं उसके चौरासी हजार सामनिक देव और करोडों अप्सराए ? मैं उन सबको अभी नष्ट करता हूँ।
___ चमरेन्द्र के घृष्ट वचनों को सुनकर शक्रेन्द्र को क्रोध आया। रोषभरे शब्दों में उसने कहा - हे पुण्यहीन असुरराज! तू आज ही मर जाएगा। ऐसा कहकर हजारों उल्काओं को छोडता हुआ वज्र चमरेन्द्र के उपर छोडा। भयभीत होकर चमरेन्द्र तेज गती से भगवान के पास आया और पाँवों के बीच में गिरते हुए बोला - भगवन् ! आप ही शरण दाता हो भगवान तो ध्यान में थे। परंतु वह दोनों पाँवों के बीच में कुंथवे का रुप लेकर छिप गया। शकेंद्र ने सोचा चमरेन्द्र का इतना साहस नहीं हो सकता हैं । कोइ पीठबल होना चाहिए। अवधिज्ञान से उसने जान लिया की वह भगवान महावीर की शरण लेकर आया हैं। यह जानकर भगवान के चरण से चार अंगुल दूर स्थित वज्र को पकड लिया और चमरेन्द्र को अभय प्रदानकर भगवान की क्षमा मांगकर लौट गया। भगवान की शरण का यह अद्भुत प्रभाव हैं। यह घटना इस बात की साक्षी हैं।
शरण शब्द को अपने में समेटा हुआ मांगलिक समस्त विश्व का प्रथम और परम मांगलिक हैं। सारे मंगल इस मंगल में समा जाते हैं। शरण का स्वीकार वंदन और नमस्कार से भी उपर हैं। वंदन नमस्कार चरण में होते हैं। मस्तक झुकाकर वापस उठा भी लेते हैं। शरण में माथा उठता ही नहीं हैं, वापस लौटता ही नहीं हैं। शरण में तो माथा गोदि में धर देते हैं। बच्चा जैसे माँ की गोदि में अपना सर्वस्व समर्पित कर निर्भय और निश्चिंत हो जाता हैं वैसे ही सरणदयाणं मिल जानेपर हम भी अपना सर्वस्व समर्पित कर निर्भय और निश्चिंत हो जाते हैं। शांत एकांत वातावरण में सरणदयाणं को आमंत्रित करों । उनकी गोदी में अपना मस्तक धर दो। मस्तकपर हाथ रखकर प्रभु पूछेगे तू कौन हैं? शरण आने का तेरा क्या तात्पर्य हैं? तब हमें उनसे कहना हैं कि हम संसार से भयभीत हैं। आप अभयदयाणं बनकर हमें भयमुक्त करों। चक्खुदयाणं बनकर आओ और हमें वे दिव्यनयन दो जिससे हम सत् स्वरुप को देख सके। मग्गदयाणं बनकर हमें चलने का सामर्थ्य दो। सरणदयाणं बनकर शरण में लो और जीवदयाणं बनकर हममें जीवन के मूल्य प्रगट करो।
।। नमोत्थुणं सरणदयाणं ।। ।। नमोत्थुणं सरणदयाणं ।। ।। नमोत्थुणं सरणदयाणं ।।
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