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संबोधि यहाँ परमात्मा का सबसे बडा दान हैं। संसार में आदान प्रदान साथ होते हैं। यह व्यवहार समान रहने के कारण उपर नीचे नहीं होता हैं बराबर ही रहता हैं। परमात्मा की संबोधि केवल एक तरफ का दान हैं। संबोधि के बदले में हम दे भी क्या सकते हैं। हमारे पास देने को हैं भी क्या? हम तो संसार से थके हुए आते हैं। थकान के कारण कहो या और कुछ परंतु यह बात निश्चित हैं कि कुछ स्थिति से हो गुजरने के बाद जीव का समर्पण उच्च कोटी का हो जाता हैं। तब हम स्वयं को ही दे देते हैं। एकबार परमात्मा के चरणों में मस्तक धर देने के बाद उसे उठाने की हमें हिम्मत ही नहीं होती हैं।
ज्ञानी पुरुषों ने संसारी जीव की थकान के तीन कारण बताए हैं - संबोधि के योग्य बन जाने के बाद जीव परिभ्रमण से थकता हैं, अबोधि में संसार के काम कर कर के थकता हैं और तीसरा नाटक कर करके थकता हैं। अनादिकाल से जीव संसार में कुछ काम कर ही रहा था। काम ही करता था कायोत्सर्ग तो करता नहीं था। तप जप कुछ करता हैं तो उसके हिसाब रखता हैं। कितना खाया उसका किसी के पास कुछ हिसाब नहीं हैं। इतने उपवास आयंबिल करे उसका बडा लीस्ट हैं। काम से थके तो बेडरुम में जाकर आराम किया। जिस आराम के बाद पुन: काम शुरु होता हैं। संसार से थकते हैं तो भगवान की गोदी में मस्तक धर देते हैं। यह एक ऐसी जगह हैं जहाँ जनम जनम का थाक उतरता हैं।
मस्तक गोदी में रखते ही प्रभु पहला प्रश्न यही पूछते हैं - गोदि में मस्तक रखनेवाल तू कौंन हैं ? परमात्मा हममें हमारी पहचान प्रगट करते हैं। यह प्रश्न ही संबोधि की शरुआत हैं। इस परमदान के गुण के कारण ही गणधर भगवंत नमोत्थुणं में परमात्मा की बोहिदयाणं पद से स्तुति करते हैं। परमात्मा से हमें दो चीजें मिलती हैबोध और बोधि। परमात्मा जो देते हैं वह बोध हैं। हम जो लेते हैं वह बोधि है। बोधि जब हममें प्रगट होती हैं तो वह समाधि हैं।
यह बोधि तीन स्वरुप मे प्रगट होती हैं - १. बोधिदान २. बोधिलाभ ३. बोधिबीज। . बोधिदान अर्थात् जिनप्रणीत धर्म का दान।
बोधिलाभ अर्थात् जिणप्रणीत धर्म की प्राप्ति।
बोधिबीज अर्थात् जिणप्रणीत संस्कारों की परंपरा। दान में दिया जाता हैं तब बोधि तत्त्व स्वरुप होती हैं। जब वह प्राप्त हो जाती हैं तब उसे बोधिलाभ कहा हैं। लाभ को शास्त्र में तीन विभागों में बाटा हैं - लद्धा, पत्ता और अभिसमण्णागया। मिलना, प्राप्त करना और सम्मुख होना। यहाँ मिलना जो हैं लब्धि स्वरुप कहा गया हैं। गौतमस्वामी में भगवान महावीर ने बोधि प्रगट कर दी। वह बोधि लब्धि के रुप में परिणमित हो गयी। प्राप्त होकर परिणमित हुई और सन्मुख प्रगट हो गयी। पंद्रह सौ तापसों को अंगुठे मात्र से खीर खिलानेवाली घटना में प्रभाव का प्रदर्शन नहीं था। लब्धि मिली अर्थात् लब्ध हुई। प्रयोग से प्राप्त हुई और तापसों को पर्याप्त मात्रा में खिलाकर अभिसमण्णागया अर्थात् परिणाम रुप प्रयुक्त होकर सन्मुख प्रगट हो गयी।
बोधिबीज में प्रभु से प्राप्त बोधि बीज के रुप में वपन की जाती हैं। ऐसा इसलिए किया जाता हैं कि भवांतर
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