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प्राप्त करनेवाले जंबुस्वामी ने विवाह की प्रथम रात्रि में अपने शयन कक्ष में आठ पत्नीयों को इसी देशना से प्रतिबोधित किया था। बायचान्स ही समझो भवन में चोरी करने के लिए आए हुए प्रभवआदि पाँचसो चोरों ने यह देशना सुनी परिणामत: वे सभी इस परिणाम को प्राप्त हुए। देशना का श्रवण, भावन और चिंतन अनिवार्य है।
समस्त दर्शन जिन देशना की ही उपज हैं। अरिहंत देशना अर्थात् सुक्ष्म विचार संकलनाओं से भरा हुआ विश्व दर्शन। आत्मा है, वह नित्य है, वह कर्म का कर्ता है, वह कर्म का भोक्ता है, मोक्ष है और मोक्ष के उपाय हैं। इन षट्स्थानकों के द्वारा अरिहंत परमात्मा आत्म स्वरुप को प्रकट करते हैं । इन्हीं षट्स्थानकों में से एक को ही एकांत रुप मानकर अन्य दर्शनों की मान्यताएं सिद्ध होती है ।
जिन देशना अथवा अरिहंत परमात्मा का यह झलकता हुआ परम सौभाग्य जिसका पुण्य-प्रकर्ष ही जगत् के जीवों के उद्धार का एक मात्र अवतरण है। पूर्णतः पुण्यशाली न होने से प्रत्यक्षतः हम उनकी इस परमार्थिकी जिन देशना का श्रवण-मनन-चिंतन या आत्म-स्पर्शन नहीं कर पाते हैं परंतु किसी अंशात्मक पुण्य-प्रताप से अन्य आत्मार्थी जनों द्वारा ग्रन्थित उस दिव्य देशना को अरिहंत के कृपा बल से आज प्राप्त कर रहे हैं। यह देशना एक योजनतक पहुंचानेवाले मालकोशराग में अर्धमागधी भाषा में होती है।
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ऐसी देशना प्रथम पोरसी और अंतिम पोरसी में होती है। श्रमण भगवान महावीर ने अंतिम देशना सोलह प्रहर तक दी थी। अंतिम समय में इतने घंटेतक देशना का चालु रहना संभव हो भी सकता हैं क्योंकि परमात्मा की देशना का उदेश्य तीर्थंकर नामकर्म के विपाकोदय होने से भाषा वर्गणा के जितने पुद्गल खिरने होते हैं उतनी देशना होती है। परमात्मा स्वयं देशना की इच्छा संकल्पादी नहीं करते हैं। देशना के लिए समय मर्यादा व्यवस्था मात्र हैं। बाकी तो जनसमुदाय के पुण्य और आवश्यकता देशना का विशेष हेतु है । देशना का हेतु स्पष्ट करते हुए शास्त्र में दो कारण बताए हैं - सव्वजगजीव रक्खणट्ट्याए दयट्ट्याए भगवया पावयणं सुकहियं - जगत् के सभी जीवों की दया और रक्षा हेतु भगवान देशना देते हैं। जीव का पुण्योदय और आवश्यकता होनेपर तिर्यंचों को भी स्वयं या माध्यमों के द्वारा देशना या संदेशना देते रहे। भगवान मुनीसुव्रत स्वामी एक अश्व को प्रतिबोधित करने एक रात में २४० कोश का विहार करके पहुंचे थे। हालिक किसान को प्रतिबोधित करने के लिए भगवान महावीर ने प्रथम गणधर गौतमस्वामी को खेत में भेजा था जहाँ वह खेती कर रहा था। मोक्ष प्राप्ति तक निरंतर दो प्रहर स्वयं देशना देते है और प्रतिदेशना के बाद एक एक प्रहर अर्थात् दो प्रहर पर्यंत गणधर देशना देते हैं। दिन में केवल तीसरा प्रहर ही बिना देशना का होता है ।
जहाँ आत्मा के विकारमय होने का अनंतांश भी शेष नहीं रहा है ऐसे परमात्मा के शुद्ध स्फटिक और चंद्र उज्ज्वल शुक्लध्यान की श्रेणी से प्रवाहित अरिहंत देशना को हमारे अनंत अनंत नमन हो । धर्म देशना देनेवाले को हम अपना समस्त अर्पण कर उन्हें हमारे नेतृत्त्व के लिए आंमत्रित करते है ।
नमोत्थुणं धम्मदेसयाणं ।। नमोत्थुणं धम्मदेसयाणं ।। नमोत्थुणं धम्मदेसयाणं ।।
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