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नमोत्थुणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं
धम्मदयाणं में परमात्मा धर्म का दान करते हैं। दान व्यवस्था में दाता देकर छूट जाता हैं। धम्मदेसिायाणं में परमात्मा देशना देकर आत्मा के देश-प्रदेश तक पहुंचकर शुद्ध करते हैं।
धम्मनायगाणं में परमात्मा नेतृत्त्व करते हैं। चलाते हैं। गलती करनेपर सुधारते हैं। धम्मसारहिणं में परमात्मा प्रेम से चलाते हैं। थकते हैं तो रथ में बैठाकर मोक्ष तक पहुंचाते हैं। धमवरचाउरंतचक्कवट्टीणं में परमात्मा आत्मसमृद्धि से भर देते हैं और चार कषाय-गति आदि का अंत
करने में सहायता करते हैं। यह संसार अस्तित्त्व और अनुभवों का अनवरत चक्र है। यह निरंतर चलता ही रहता है। इसी कारण यहाँ जीवन कभी न रुकता है न कभी हारता है बल्कि निरंतर चलता ही रहता है। अचल तो है सिद्धचक्र। जो करता है चारोंगतियों का अंत। जो है अनंत। करता अनंत। देता अनंत। अनंत का न कभी अंत अत: उन्हें कहते है भगवंत । अनंत की इस यात्रा में अनादि काल से कुछ ऐसे घटक हैं जो हमें अनंत तक पहुंचने में रोकते हैं। अनंत को प्राप्त करने उनका अंत आवश्यक हैं। वे मुख्य घटक चार हैं। चारगतियों में अनादिकाल से जीव परिभ्रमण करता है। इनके अंत का परिणाम अनंत निर्वाण है। चारों गति में परिभ्रमण करानेवाले कर्म चार घाती और चार अघाती हैं। आनंदघनजी ने घातीकर्मों को पर्वत की उपमा दी हैं। पर्वत के उस पार मोक्ष है। उन्होंने कहा हैं -घाती डुंगरआडा अतिघणारे...तुझदरसण जगनाथ।
सारथि बनकर हमारा धर्मरथ परमात्मा चला रहे हैं। इस धर्म रथ में प्रवेश पाने के पूर्व हम अनेक गाडियों में प्रवास कर चुके हैं। आँखे बंदकर ड्राईव्हर पर भरोसा कर हम संसार में परिभ्रमण करते रहे। बताइए कौन देखता हैं ड्राइव्हरों का लायसन्स, कौन कन्फर्म करता है कि ड्राइव्हर कैसा है? इतने अकस्मात होने पर भी आँख मुंदकर प्रवास करनेवाले प्रवासियों की संख्या कितनी हैं? अनादि काल से परिभ्रमण करते हुए हमें ऐसा धर्मसारथि पुण्य से प्राप्त हुआ। धर्मरथ को चलानेवाले को सारथि के रुप में पहचाननेपर गाडी का मालिक ओर कोई हैं पर आज हम कुछ आगे बढ रहे हैं। सारथि को पहचान लेनेपर हमें अनुभव हुआ कि गाडी का कोई ड्राइव्हर नहीं परंतु स्वयं गाडी के मालिक गाडी चला रहे हैं। जिन्हें हम सारथि समझ रहे हैं वे स्वयं चक्रवर्ती हैं। वे जो अपनी अपार समृद्धि के साथ अनंत ऐश्वर्य के साथ चारों ओर अपनी शासन सत्ता का स्वामित्त्व भुगत रहे हैं। ये चक्रवर्ती वे है जो शासन के स्वामी हैं, सबके अंतर्यामी हैं।
___ चतुरंत अर्थात् चार अंत, चार सीमाएँ। भरतक्षेत्र के चक्रवर्ती का साम्राज्य भरतखंड की पृथ्वी के चारों सीमाओंतक फैला हुआ होता है। तीनों ओर लवणसमुद्र तक और उत्तर की ओर हिमवंत पर्वत तक। इस तरह भरतक्षेत्र के चारों सीमाओं के अंततक जिनका स्वामित्त्व और शासन होता हैं वे चातुरंत चक्रवर्ती कहलाते हैं। चाउ अर्थात् चार। इस चाउ से ही चातुर शब्द बना है। इसपर से ही चातुर्मास शब्द बना है। वर्षभर में तीन चातुर्मास होते हैं। अषाढ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक एक चातुर्मास। कार्तिक पूर्णिमा से फाल्गुन पूर्णिमा तक दूसरा चातुर्मास
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