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समस्त विश्व में तीर्थंकर का नायकपना विशिष्ट अद्भुत असीम और अतुलनीय रहा है। इस विशिष्टता को चार भागों में बांटा गया है - वशीकरण, उपलब्धिकरण, सफलीकरण और संयोगीकरण । जो वश में होता हैं वह आधीन होता हैं। धर्म परमात्मा के वश में होने से परमात्मा धर्म के स्वामी होते हैं। धर्म को प्रभु ने द्रव्य, काल और भाव संबधीत विधि के साथ और आयोजन के साथ प्राप्त किया हैं । विधिपूर्वक ग्रहण करने के बाद स्वस्थ चित्त, स्फूर्ति, जागृतीपूर्वक और निरतिचार रुप से उसका पालन किया हैं। धर्म वश में होने के कारण ही परमात्मा ने उसका दान दिया है। जो हमारा अपना होता हैं, जिसके उपर हमारा अधिकार होता हैं उसे ही हम अन्य को दे सकते हैं। यहीं कारण हैं कि परमात्मा धर्म को निरपेक्ष भाव से दे सकते हैं। धर्मदान या व्रतदान करते समय परमात्मा को कोई अपेक्षा नहीं रहती हैं।
धर्म की पूर्णतया उपलब्धि यह भी परमात्मा की नायकपना का दूसरा कारण बताया गया हैं। धर्म की उपलब्धि जैसी तीर्थंकरों को हैं वैसी अन्य के पास उपलब्ध नहीं हो सकती । तीर्थ कर तीर्थंकर होते हैं। तीर्थत्त्व धर्मशासन का विशिष्ट आलंबन हैं। धर्मोपलब्धि का मुख्य कारण परमात्मा का अनुपम विश्व वात्सल्य हैं। अन्य जीवों के हित का संपादन करना परमात्मा की स्वाभाविकता हैं। सूर्य जैसे संपूर्ण विश्व को और वनसृष्टि को प्रतिदिन नवस्फूर्ति देता है। उसी तरह परमात्मा भव्य जीवों में नवीन चेतना प्रेरीत करते हैं। सूक्ष्मातिसूक्ष्म पाप निवृत्तिरुप और तप स्वाध्याय आदि धर्म प्रवृत्तिरुप कल्याणपथ का संपादन कर अन्य जीवों में धर्मोपलब्धि का परमकारण भी बनते हैं। हीनजीवों के प्रति भी परमात्मा की उपकार वृत्ति रहती हैं। देव और मनुष्य ही नहीं तिर्यंच जीवों को भी धर्मदान करते रहे हैं। चाहे धर्मनाथ भगवान चूहा हो या मुनिसर्वत स्वामी का अश्व हो । चाहे चंडकौशिकसर्प हो। भगवान का तथाभव्यत्त्व इतना उत्तम होता हैं अन्य जीवों के प्रति असाधारण निमित्त बन जाते
हैं।
जो सफल होता हैं वही तो नायक होता है। परमात्मा उपमातीत हैं । उत्तम समृद्धि से युक्त हैं । सकलपुण्य प्रकर्ष स्वामी हैं । परमात्मा का आभामंडल अत्यंत फलदायी होने के कारण अन्यजीवों को उसमें तीन भूतकाल के, तीन भविष्यकाल और एक वर्तमान काल का ऐसे सात भव दिखाई देते हैं । उत्कृष्ट पुण्य प्रकृति स्वरुप तीर्थंकर नामकर्म का विपाकोदय होने से उससे संलग्न यश नामकर्म, आदेयनामकर्म, सौभाग्यनामकर्म आदि समग्र पुण्य प्रकृतियाँ समग्रता के साथ धर्मोपार्जन में उत्कृष्टता दर्शाती हैं। उत्कृष्टधर्म फल का आधिपत्य भी उत्कृष्ट होता हैं।. उत्तम धर्मफल के सद्भाव और संयोग के कारण उनमें धर्मफल के विघात का अभाव होता हैं। धर्मफल उपभोग के कारण सहज और स्वाभाविक होते हैं। धर्मफल के प्राप्ति के योग्य पुण्य अवंध्य होता हैं। पुण्यसंयोग इतना प्रबल होता हैं कि उनको विघात पहुंचाने का सामर्थ्य किसी में नहीं होता। आदेयनामकर्म के कारण सिंह और मृग एक साथ प्रभु के सान्निध्य में रहते हैं । सौभाग्य नामकर्म के कारण वृक्ष भी नमस्कार करते हैं। लाभांतराय, भोगांतराय आदि विघ्नकर्ता पापकर्म का सर्वथाक्षय हो जाने के कारण किसी प्रकार का व्याघात नहीं होता हैं। धर्म यह आत्मा का सहजस्वरुप हैं। इस सिद्धांत का संयोग अन्य जीवों को साहजिकता से करना परमात्मा की स्वाभाविकता हैं।
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