Book Title: Namotthunam Ek Divya Sadhna
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Choradiya Charitable Trust

View full book text
Previous | Next

Page 184
________________ नमोत्थुणं - धम्मनायगाणं जो धर्म को जानते हैं वे धर्मज्ञायक कहलाते हैं। जो धर्म को देते हैं वे धर्मदायक कहलाते हैं। जो धर्म की देशना करते हैं वे धर्मदेशक कहलाते हैं। जो धर्ममार्ग का नेतृत्त्व करते हैं वे धर्मनायक कहलाते हैं। धर्म श्वास हैं। धर्म देशना विश्वास हैं। धर्मनायक अहसास हैं। धर्म फिल्ड हैं। धर्म देशना फिल्डींग हैं। धर्मनायक फीलींग हैं फिल्ड अर्थात स्थान, जगह, क्षेत्र, खेत। धर्मदेशना अर्थात् खेती। धर्मनायक अर्थात् खेती करनेवाला, परिणाम प्रगट करनेवाला। अन्यों में परिणाम की परिणती उत्पन्न करनेवाला। जो दुर्गति से बचाकर सद्गति में सहाय करता हैं वह धर्म हैं। परमात्मा धर्म देते है। धर्मदेशना देते हैं और धर्म का नेतृत्त्व करते हैं। धर्म और धर्मदेशना का देना तो समझ में आता है पर उसका नेतृत्त्व कैसे हो सकता है? धारे वह धर्म इस दृष्टि से दुर्गति गिरते हुए को धर ले, बचा ले और सद्गति की ओर ले जाए उसे धर्म का नेतृत्त्व करना कहते हैं। इस नेतृत्त्व के लिए परमात्मा जो धर्म देते उसे अनुष्ठान धर्म कहते हैं। केवल प्रवृत्तिरुप अनुष्ठान नहीं परंतु परिणति रुप अनुष्ठान का नेतृत्त्व करते है। परिणतिरुप धर्म प्राप्त करने हेतु पहले तो प्रवृत्तिरुप अनुष्ठान ही होता है इसीलिए कहा हैं - अट्ठभवाउ चरित्ते निरंतर धर्म की प्राप्ति कराने का काम प्रवृत्ति का है। निरंतर आठ भव पर्यंत चरित्र की आराधना नहीं चलती हैं। बीच में देवाधिभव छोड भी दो तो आठवें भव में चारित्र्य लेकर मोक्ष प्राप्त होता है। प्रवृत्ति धर्म को परिणतीरुप धर्म बनाने के लिए कहा हैं - भवे भवे तुम्ह चलणाणं हे परमात्मा ! भवोभव मुझे आपके चरणकमल की उपासना प्राप्त हो। क्योंकि आपके चरण मोक्ष का नेतृत्त्व करते हैं। हेतु, स्वरुप और फल सुंदर होने से परमात्मा का नेतृत्त्व मोक्षगामी हो सकता है। ___ धर्म का चिंतन करते समय बडी उलझने आती है। प्रत्येक धर्मवाले अपने अपने धर्म को श्रेष्ठ मानते हैं। कौनसा धर्म श्रेष्ठ हैं इसका निर्णय अनिवार्य है। धर्मदान और धर्म देशना के बाद धर्म का नेतृत्त्व इस समस्या का समाधान हैं। परमात्मा का यह नेतृत्त्व हमारे व्यक्तित्त्वपर, अस्तित्त्वपर या वस्तुत्त्वपर ? व्यक्तित्त्वपर नेतृत्त्व करनेवाले नेता कहलाते है। वस्तुत्त्वपर नेतृत्त्व करनेवाले राजा, शेठ या स्वामी होते हैं। परमात्मा न व्यक्तिपर न वस्तुपर नेतृत्त्व करते हैं। उनका नेतृत्त्व अस्तित्त्व के साथ संलग्न है। अस्तित्त्व का नेतृत्त्व स्वामीत्त्व की तरह नहीं होता हैं। अस्तित्त्व स्वयं एक स्वतंत्र अवस्था हैं। उस अवस्था की अनुभूति की व्यवस्था परमात्मा करते हैं। जीव स्वयं के अस्तित्त्व को जाने पहचाने समझे और शास्वत का अनुभव करे। स्वायत्त सत्ता सदा सर्वदा स्वाधीन रही हैं। परमात्मा का नायकपना सत्ता से अनभिज्ञ जीवों को सत्ता का मूल्यांकन समझाने का हैं। किसी के उपर नेतृत्त्व या स्वामीत्त्व का आशय नहीं हैं। 182

Loading...

Page Navigation
1 ... 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256