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केवलज्ञानी और वीतराग बन जाने के पश्चात अरिहंत परमात्मा पूर्ण कृतकृत्य हो चुके होते है। वे चाहें तो एकान्त साधना से भी अपनी मुक्ति कर सकते है, फिर भी वे देशना देते हैं। उनकी इस प्रवृत्ति के कई कारण है। प्रथम तो यह कि जब तक देशना देकर धर्मतीर्थ की स्थापना नहीं की जाती तब तक तीर्थंकर नामकर्म का भोग नहीं होता। दूसरा, जैसा कि प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है - समस्त जगजीवों की रक्षा व दया के लिए भगवान प्रवचन देते हैं। तीर्थंकर वीतराग होने पर भी तीर्थंकर नामकर्म के उदय से उनको धर्मदेशना करने का स्वभाव होता है। जब तक इसका उदय रहता है तब तक वे धर्म देशना देते है।
अरिहंत भगवान का एक भी वचन असंख्य जीवों के भिन्न भिन्न प्रश्नों का हितकर एवं स्पष्ट बोध कराता हैं और निराकरण करता है। इसका कारण उनका तथाप्रकार का अचिन्त्य पुण्य प्रकर्ष का प्रभाव ही है। अत: इसी प्रश्नपर कि तत्तं कहं वेइज्जई ? तीर्थंकर नामकर्म कैसे वेदा जाता है? उत्तर दिया गया है कि, अगिलाएधम्मदेसणाईहि ग्लानिरहित धर्म देशना से ही यह कर्म वेदा जाता है।
यह देशना ऐसी महत्त्वपूर्ण है तो फिर यह अभव्यों में पूर्ण सफल परिणाम क्यों नहीं लाती? प्रस्तुत प्रश्न के निवारण हेतु हरिभद्र सूरिजी कहते हैं - इसमें अभव्य आत्मा का ही दोष है। बीज कितना ही उच्चकोटी का हो परंतु जमीन यदि फलदुरुप नहीं है तो बीज क्या करेगा ? क्योंकि सूर्य के सहज उदय होते ही स्वाभाविक क्लिष्ट कर्मवाले उलूकों आँखो से दिखना बंद हो जाता है। यहाँ सूर्य की न्यूनता नहीं मानी जाएगी वैसे परमात्म देशना का अभव्यों में परिणमन नहीं होने में परमात्मा की न्यूनता नहीं है।
अरिहंत परमात्मा की देशना श्रवण करने वाले श्रोताओं में से कोई जीव सर्वविरत बनता है, कोई देशविरत बनता है, कोई सम्यक्त्व ग्रहण करता है, इस प्रकार के तीन में से कोई भी एक सामायिक तो कम से कम ग्रहण की ही जाती है। अन्यथा परमात्मा अमूधलक्ष (एक भी अक्षर) नहीं कहते हैं। समवसरण में मनुष्यों में एक सामायिक की प्राप्ति होती है। तिर्यंच में से दो या तीन सामायिक ग्रहण की जाती हैं। यदि मनुष्यों और तिर्यंचो में से कोई जीव किसी भी प्रकार की सामायिक ग्रहण न करे तो देवों द्वारा अवश्य ही सम्यक्त्व सामायिक ग्रहण की जाती है। अनेकों तीर्थंकरों के इतिहास में आज तक श्रमण भगवान महावीर के अतिरिक्त किसी भी तीर्थंकर की देशना में ऐसा नहीं हुआ है।
सर्व जीवों के प्रति समान भाव वाली परमात्म-देशना से असंख्यात संशयी जीवों के संशय का एक साथ विनाश होता है। परमात्मा की अचिन्त्य गुण-विभूति के कारण जीवों को परमात्मा का सर्वज्ञत्त्व का प्रत्यय प्राप्त होता है। वृष्टि का जल जैसे विविध वर्णवाले पात्रों से विविध वर्ण का दिखता है, वैसे सर्वज्ञ प्रभु की देशना सर्वभाषाओं में परिणमित होती है। इस प्रकार की देशना देते हुए अरिहंत परमात्मा भव्यात्माओं के पुण्यमय प्रदेशों में विचरते हैं। उनका उद्धार एवं निस्तार करते हैं। कई भव्यात्मा इसके लिए उत्सुक भी होते हैं। देशना परिणमित होनेपर श्रोतासाधक में तीन परिणाम प्रगट होते हैं - वह निर्मल, संकलेश रहित और परित्तसंसारी अर्थात् अल्पसंसारी होता है। देशना का यह नक्कर परिणाम हैं। परमात्मा की देशना का एक ही बार में श्रवण कर परिणाम
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