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किसान हालिक हिल गया। हल रुक गया। साक्षात पुण्य सामने खडा है। मैं जो कर रहा हूँ वो पाप क्रिया है ऐसा अनुभव उसे होने लगा। अपलक नेत्रों से वह गौतमस्वामी को देखने लगा। मधुर स्वर में गौतमस्वामी ने कहा, संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए... उम्मुच्चपासं इह मच्चिएही आरंभजीवी उभयाणुपस्सी । भद्र ! इस लोक के सारे बंधनों को त्याग दो शारीरिक और मानसिक दोनों दुःखदायी इस आरंभ को छोड दो वत्स ! यह त्यागने का आपका अवसर आ चुका हैं। स्वयं भगवान महावीर ने इस जागरण का तुम्हें संदेश भेजा हैं । परमात्मा की शक्ति और स्वयं के सत्त्व के साथ निकले गौतम स्वामी के इन शब्दों के प्रभाव ने अपना स्वभाव प्रगट किया और गौतमस्वामी के आत्मवैभव से मुग्ध हालिक ने हलादि शस्त्रों को फेंक दिया। झुक गया श्री सद्गुरु के चरणों में। स्वयं को भाग्यशाली मानने लगा । बोध का स्वीकार किया अबोध टुट गया। संबोध जग गया। गौतमस्वामी ने कहा वत्स ! अहियाए अबोहिए। अबोध अहित का कारण हैं। स्वयं लोगहियाणं आपको जाग्रत कर रहे हैं अतः आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं । भद्र इस आज्ञा को समझकर भय से मुक्त हो जाओ ।
परमात्मा के चरणों में नमस्कृत होकर पवित्र होने के लिए चल पडा प्रभु महावीर की शरण में। अब देखिए कैसा मोड ले रही है। सद्गुरु के साथ हालिक चला सत्स्वरुप के पास। दोनों पहुंचे जहाँ भगवन् बिराज रहे थे दूर से ही प्रभु को बिराजीत देखकर गौतम स्वामी ने निर्देश किया देखो ये हैं मेरे भगवान और तुम्हारे गुरु | प्रभु को देखकर निश्चल होने के बजाय विचलित हो गया हालिक । विव्हलता से गौतम स्वामी के समक्ष देखकर पूछा क्या यही हैं तुम्हारे गुरु? जिनके बारे में आप इतना कथन कर रहे थे। यदि ऐसा ही हैं तो मुझे न चाहिए तुम्हारा आदेश और उपदेश । न चाहिए तुम्हारा मार्ग और मोक्ष | वह सब सामान वहाँ छोडकर तेजी से भग गया। अचरज से गमगीन बने गौतम स्वामी प्रभु महावीर को प्रश्न करते हैं, प्रभु ! ऐसा क्यों हुआ, अब कैसे होगा इसका कल्याण ? परमात्मा इस उहापोह को जानते थे। भूत, भविष्य और वर्तमान घटीत घटना के सारे संबंध प्रभु की नजर के समक्ष थे। आश्चर्य तो इस बात का हैं कि जानते हुए भी प्रभु ने गौतम स्वामी को प्रतिबोधित करने क्यों भेजा ? इसका उत्तर भी भगवान ने गौतम स्वामी को दे दिया । वत्स ! तुम्हारी प्रतिध्वनि, प्रतिबोध और प्रतिक्रमण निरर्थक नहीं हुआ है। आकर लौटा हुआ हालिक सम्यक दर्शन पाकर गिरे हुए उस हालिक का संसार अर्धपुद्गल परावर्त काल के अंदर का हो गया। अतः गौतम निश्चिंत रहो । कर्मपरिणती विचित्र हैं, विविध हैं और विषम हैं। गौतम स्वामी ने प्रभु से पुछा प्रभु ! ऐसा क्यों ? परमात्मा ने कहा इसमें हमारे पूर्वजन्म की आत्मकथा का रहस्य हैं । नवभव के पूर्व मैं त्रिपुष्ठ वासुदेव था। तू मेरे रथ का सारथि था। एक बीहड वन में शिकार को गए थे। एक सिंह को मैंने जबडे से फाड़ डाला था। तडपते हुए सिंह की आँखों में आँसू थे। मरते हुए सिंह को रोता हुआ देखकर तुम सारथि ने उसे पहचान लिया था कि ये सिंह के अहं को ठेस पहुंची हैं। तब तुमने उसे आश्वासन दिया हे सिंह! चिंता न करो। तुम्हारा शिकार किसी सामान्य प्राणी से नहीं मानव सिंह से हुआ हैं। शिकार करनेवाला राजा त्रिपुष्ठ वासुदेव हैं। भवांतर करता हुआ वही सिंह आज हालिक बनकर सामने आया था। तुम से आश्वस्त वह सिंह आज हालिक बनकर तुमसे प्रतिबोधित हुआ और मुझे देखकर पुनः प्रत्यारोपित हो गया पर जाते जाते वह समकित पा गया। इसके जीवन रथ के तुम सारथि हो मैं धर्मसारथि हूँ । अतः यह समयांतर में सिद्धत्त्व को प्राप्त करेगा।
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