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दर्शन करने लगे। चूहे ने नजदीक आकर भगवान के चरणों का स्पर्श किया तीन प्रदक्षिणा दी और नमोत्थुणं धम्मदयाणं धम्मदयाणं धम्मदयाणं... की धून के साथ चूहा प्रभु के द्वारा अपना भविष्य जानने के लिए उत्सुक हो गया। चूहे के साथ इन्द्र सहित समस्त सभाजन कौतूहल के साथ प्रभु की गंभीरवाणी सुनने लगे।
प्रभु ने अपने गंभीर घोष में कहा, चौदहवें अनंतनाथ भगवान के समय में विंध्यवास नाम के छोटे से संनिवेश के राजा महेंद्र के पुत्र का नाम ताराचंद्र था। किसी एक युद्ध में राजा महेंद्र की मृत्यु हो जानेपर रानी ने अपने पुत्र के साथ भगवान अनंतनाथ के चरणों में दीक्षा धारण की। माता-पुत्र दोनों भगवान की और भगवान के शासन की आराधना कर रहे थे। अचानक एक दिन मुनि ताराचंद्र का मन विचलित हो गया। व्याकुलता में उन्हें संयममार्ग दुसह्य लगने लगा। आज्ञाधर्म बंधन लगने लगा। अचानक एक दिन प्रकृति में चूहों को निर्बंध, स्वछंद और स्वाधीन देखकर अनुमोदना हो गयी। साधु जीवन से तो इन चूहों का जीवन सुंदर हैं। कोई बंधन नहीं दिनरात जब चाहे तब जहाँ चाहे वहाँ जा सकते हैं। देवानुप्रियो ! इन अशुभ भावों की आलोचना किये बिना मृत्यु प्राप्तकर मुनि ताराचंद्र का जीव अल्प आयुष्यवाला जीव हुआ देव का आयुष्य पूर्ण कर यह चूहा बना है। भगवान की वाणी सुनकर समस्त सभाजन आश्चर्यान्वित हो गए। सजल नेत्रों से प्रभु की ओर देखते देखते चूहे को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। अपने पूर्वजन्म को प्रभु से सुनकर, ज्ञान से जानकर और जातिस्मृति में देखकर पाप का तीव्र पश्चाताप करने लगा। परिणामत:क्षपकश्रेणीपर आरुढ होकर भावचारित्र्य के साथ आराधक होकर मोक्ष को प्राप्त कर गया।
परमात्मा स्वयं धर्मस्वरुप हैं धर्मसंपन्न हैं। इसलिए भगवान को धर्मवान भगवान कहा जाता है। धर्म की मूलपरिभाषा हैं धर्म प्राप्त होनेपर कर्म बंधन नहीं होते हैं। महायोगी आनंदघन जी ने पंद्रहवे भगवान की स्तुति करते हुए कहा हैं
धरम धरम करतो जग सह फिरे धरम न जाणे हो मर्म।
धरम जिनेश्वर चरण ग्रह्या पछी कोई न बांधे हो कर्म । आपने एक धर्मसूत्र सुना होगा... उपयोगे धर्म, क्रियाये कर्म अने परिणामे बंध। कोई भी धर्म क्रिया हो उसमें जितना चित्तोपयोग का रहता है उतना ही धर्म सिद्ध होता हैं। धर्म आत्मजागृती पर निर्भर रहता है। आत्मा के लिए उपकारक केवल मात्र धर्म है। सारे धर्मानुष्ठान आत्मा में धर्म प्रगट करने रुप में ही उपकारक होता है।
आत्मोपयोगी धर्म आत्मा में परिवर्तन लाता है। उपयोग के अनेक प्रकार है परंतु धर्म का उपयोग के साथ क्या संबंध हैं? धर्म अर्थात् स्वभाव। महापुरुषों का धर्म ज्ञान देना तारना आदि होता है। दुष्ट का धर्म अन्य को परेशान करना है। पदार्थ की दृष्टि से पानी को कितना भी गरम किया जाए वह थंडा ही होता है क्योंकि उसका धर्म थंडा होना ही है। उसी तरह आत्मा का धर्म उपयोग हैं। शुद्ध उपयोग से आत्मा शुद्ध होता है।
धर्म के इस महत्त्व को स्वयं में धारण करने हेतु ज्ञानी पुरुषों ने ध्यान के चार प्रकारों में ध्यान का एक प्रकार धर्म ध्यान कहा है। मोक्ष प्राप्ति के लिए शुक्लध्यान आवश्यक है वैसे ही शुक्लध्यान के लिए धर्मध्यान आवश्यक है। ध्यान के अतिरिक्त सम्यकज्ञान, सम्यकदर्शन और सम्यकचारित्र्य को कार्यरुपधर्म माना गया है। दान-शील
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