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मारना नहीं चाहिए। यह देशना परमात्मा चार तरह से देते है। एवमाइक्खंति आदि से आप चार प्रकार देख चुके
देव और मनुष्य की परिषद में सामान्य रुप से सहज प्रवचन पारित करना आइक्खंति हैं। अर्धमागधी भाषा में उपदेश फरमाया जाया और वह भाषा अतिशय के कारण सभी प्राणियों के अपनी भाषा में परिणमीत हो जाना भासंति है। सामान्य कथन कर लेनेपर भी कोई शंका संशय हो जाए या रह जाए उसका समाधान करने हेतु जीवजीवादि नव तत्त्वों को प्रज्ञप्त करना पण्णवेंति है। तात्त्विक दृष्टि से किसी तत्त्वविशेष, पदार्थविशेष या प्रसंगविशेष का निरुपण करना परूवेंति हैं। जैसे केवलज्ञान होनेपर परमात्मा ने देशना पारित की। सभा में बैठे सभी देवदेवी उसे समझ गए। अपने मन का संशय लेकर आए हुए गौतमस्वामी को संशय निवारीत कर प्रज्ञप्त किया गया। दीक्षित हो जानेपर गणधर गौतम का त्रिपदि का सूत्र भयवं! किं तत्तं के सूत्रपर त्रिपदि का निरुपण प्ररुपणा हैं।
इसी का विशद निरुपण करते हुए भगवती सूत्र में प्रभु की देशना को छह प्रकार से प्ररुपित किया गया हैं। छद्मस्थ अवस्था की अंतिम रात्रि में भगवान महावीर ने दस स्वप्न देखे थे। तीसरे स्वप्न में एक महान चित्र-विचित्र पंखोंवाला पुंसकोकिल देखा था। रात्रि के अंतिम प्रहर में शुभ स्वप्नों का दर्शन होता है। छद्मस्थ अवस्था के ये स्वप्न दर्शन सत्य दर्शन की पूर्व भूमिका थे। तीसरे स्वप्नफल कथन के बारे में भगवती सूत्र में तीसरे स्वप्न का फल कथन करते हुए कहा हैं, समणे भगवं महावीरे विचित्तं ससमय-परसमइयं दुवालसंगं गणिपिडगं आघवेइ, पण्णवेइ, परुवेइ, दंसेइ, णिदंसेइ, उवदंसेइ ... अर्थात् परमात्मा महावीर ने द्वादशांग गणिपिटक अर्थात् आचारांग, सूयगडांग आदि का आघवेइ अर्थात् सामान्य और विशेष प्रर्यायों की व्याप्ति से कथन किया। पण्णवेइ अर्थात् हेतु जानकर हेतुपूर्वक प्रज्ञापित किया। परुवेइ अर्थात् स्वरुप निरुपण द्वारा प्ररुपित किया। दंसेइ अर्थात् दृष्टांतों द्वारा दर्शित किया। णिदंसेइ अर्थात् विशेष फलस्वरुप निर्देशित किया। उवदंसेइ अर्थात् उपसंहार द्वारा उपदर्शित किया।
द्वादशांगीरुप परमात्मा का यह कथन गणधर भगवंतों के द्वारा ग्रथित, रचित और प्रतिपादित होता है। गणधर भगवंत द्वादशांगी की रचना करने का सामर्थ्य कैसे प्राप्त करते हैं यह जानना रसप्रद हैं। दीक्षा लेकर लंबे काल तक अध्ययनादि कर के, सोच समझ के फिर द्वादशांगी की रचना करते हैं ऐसा नहीं है। केवल मुहूर्त मात्र में ही द्वादशांगी की रचना हो जाती है। यह मुहूर्त परमात्मा के उपदेश के आधीन होता है। परमात्मा से त्रिपदी का श्रवण करते ही गणधर भगवंतो के आत्मा में रहा हुआ द्वादशांगी रचना का अद्भुत सामर्थ्य आविर्भूत हो जाता है। बिना त्रिपदी श्रवण किए द्वादशांगी की रचना नहीं हो सकती हैं। अब प्रश्न हैं कि परमात्मा त्रिपदी कब सुनाते है? यह एक महत्त्वपूर्ण संविधान हैं।
परमात्मा की देशना श्रवण कर उनके प्रमुख शिष्य गणधर होने का पुण्य लेकर आए हुए होते हैं वे दीक्षित होते है। तीर्थंकर नामकर्म के विपाकोदय के प्रभाव से त्रिपदी का कथन करते है। इस त्रिपदी से गणधरों को समस्त
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