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नमोत्थुणं - धम्मदेसयाणं
जो धर्म का प्रवर्तन करती है उसे देशना कहते हैं।
जो धर्म का संरक्षण करती हैं उसे देशना कहते हैं। जो धर्म देशना का प्रवर्तन करते हैं उन्हें धर्मदेशक कहते हैं।
जो देते हैं सत् और करते हैं कल्याण उन्हें देशक कहते हैं। देशना देती हैं तीन चीज शासन, आसन और संभाषण। शासन तो सत्ताधिशों के भी होते हैं। आसन योगियों के भी होते हैं। संभाषण राजनेताओं के भी होते हैं परंतु इनमें से किसको भी देशक नहीं कहा जाता हैं और प्रक्रिया को देशना नहीं कहा जाता हैं। तो देशना कहते किसे हैं? इस प्रश्न का उत्तर धम्मदेसयाणं पद द्वारा गणधर भगवंत देते हैं।धर्मदेशक द्वारा विश्व को तीन व्यवस्थाए मिलती हैं संपदा, निषद्या और परिषदा। संपदा सम्यक पद का दान करती हैं। निषद्या नियमित सत् का दान करती हैं। परिषदा परि अर्थात् चारो ओर से, ष अर्थात् सत् और शक्ति, दा अर्थात् दाता, देनेवाले हैं। इसतरह परिषदा से चारों ओर से सत् का दान करनेवाली वह सभा जिसमें देशना दी जाती हैं।
__ जिस परिकर में प्रभु बिराजते हैं उसे समवसरण कहते हैं। यह समवसरण वृत्त (गोलाकार )और चतुरश्र (चौरस) दो तरह के होते हैं। समवसरण की कल्पना और ध्यानविधि अनेक तरह की है। धर्मदेशक परमात्मा इस समवसरण में बिराजकर धर्म देशना फरमाते हैं। आप सोचोगे धर्म और देशना में क्या अंतर है? धर्म मक्खन की तरह है। जिसकी अवधि कम समय की होती है और धर्म देशना घी की तरह होती है जिसकी अवधि लंबे समय की होती है। देशना आदेश, आज्ञा और आगम का रुप धारण करती है। कभी देशना संदेश का भी काम करती है। संदेश भेजने के भी अलग अलग कारण रहते है। जैसे भगवान महावीर ने अपने अंतिम समय से पूर्व गौतमस्वामी से देवशर्मा ब्राम्हण को प्रतिबोधित कराया था। इसमें कारण अज्ञात है। अंबड के साथ सुलसा को संदेश भेजते समय संकेत अंबड की ओर था। परमात्मा की देशना से सुलसा स्वयं संदेशमयी थी। भगवान ऋषभदेवने ब्राह्मी सुंदरी के साथ बाहुबली को संदेश भेजा था वह बाहुबली की ओर परमात्मा का देशनामय आदेश था।
देशना की स्पर्श के लिए संदेह और संशय नहीं होने चाहिए। संदेह हो तो संदेश की स्पर्शना नहीं होती है। अतः संदेह रहित होना अनिवार्य हैं। एक कच्छी संत ने कहा हैं, अंदेसडा न भांजसी संदेशडा कहिया, के हरि आया भांजसी, के हरि के पास गया। देशना में भगवान स्वयं उपस्थित होते है। भूतकाल हो वर्तमानकाल हो या भविष्यकाल परंतु देशना सर्वकाल में समान होती है। आचारांग में इसकी स्पष्टता इस प्रकार हैं - जे अईया जे पडुवण्णा जे आगमेस्सा अरहंतो भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परूवेंति सव्वे जीवाणहंतव्वा... अर्थात् चाहे भूतकाल हो, भविष्यकाल हो या वर्तमानकाल हो सभी तीर्थंकर परमात्मा की देशना एक ही तरह की होती है कि सर्व जीवों का रक्षण करना चाहिए किसी जीव को