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तप और भावनारुप धर्म को प्रवृत्तिरुप धर्म माना है। दान में अभयदान अर्थात् जीवों की अनुकंपा, दया अहिंसा आदि। ज्ञानदान अर्थात् आत्मा के चैतन्य स्वरुपज्ञान को प्रगट करना। तत्त्वों का अध्ययन कराना। शास्त्रों का स्वाध्याय कराना। सम्यग्ज्ञान दान करना ज्ञान का प्रचार, प्रसार या अनुमोदन करना। धर्मोपग्रहदान में धर्म साधना में उपकारक साधनों का दान, सुपात्रदान, साधु को निर्दोष भिक्षा का दान, औचित्यदान तथा साधर्मिक भक्ति आदि आता है। शील में सम्यक्त्वमूलक बारह व्रत का आगार धर्म और दस प्रकार के यतिधर्मरुप अनगार धर्म आता है। तपधर्म में बारह प्रकार के तप आते हैं। भावनाधर्म में मैत्री, प्रमोद आदि चार, आनित्यादि बारह और पाँच महाव्रत की पच्चीस भावनाएं आती हैं। चौथा हैं आलंबनधर्म। इसे धर्म में स्वीकारा है वैसे ये सहारा है। द्रव्यालंबन जब भावआलंबन बनता हैं तब आलंबनधर्म बन जाता है। इसतरह धर्म के अनेक प्रकार होते गए परंतु मुख्यधर्म स्वभावरुप हैं। इसीलिए कहा हैं वत्थु सहावोधम्मो।
___जम्बु स्वामी ने सुधर्मा स्वामी से पूछा था इस धर्म का आराधन कैसे किया जाता हैं? उत्तर में सुधर्मा स्वामी ने धर्म के पाँच स्वरुप का कथन सुनाया था - तदिट्ठिए तम्मुत्तिए तप्पुरक्कारे तस्सण्णे तन्निसेवणे। परमात्मा की दष्टि में अपनी दृष्टि को मिलाकर स्वदर्शन करना धर्म का प्रथम चरण है। तम्मुत्तिए अर्थात् परमात्मा के स्वरुप में स्वयं के स्वरुप को एंकरुप करना धर्म का दूसरा चरण है। जो धर्म मार्गपर चलते समय हमारे आगे चलकर हमारा मार्गदर्शन करे, अंधकार हो वहाँ प्रकाश देवे, काँटे कंकर हो वहाँ हाथ पकडकर बाहर निकाले, सुरक्षा प्रदान करें, आगे चलकर मार्ग प्रदर्शन करे। जो धर्म स्वयं आगे रहकर हमारा मार्गदर्शन करे उसे धर्म को तप्पुरक्कारे कहा जाता है। यहाँपर धर्म हमें अप्रतिबंधित स्वरुप के साथ बाँधकर निर्बंध बनाता है। यह एक ऐसा बंधन जो बंधन से मुक्त करता है। मार्ग में थकते हैं तो आराम कराता है। भयभीत होते है तो हाथ पकडकर मार्ग को पार कराता है। धर्म का चौथा प्रकार तस्सण्णे हैं, यह स्वरुप हमारी चेतना को परम चेतना के साथ जोड देता है। पाँचवा प्रकार हैं तण्णिसेवणे अर्थात् समस्त योगों के साथ समर्पित होकर सान्निध्य का सेवन करना। निकट रहकर उपासना करना।
इसतरह धर्म का वास्तविक स्वरुप पाँच प्रकार के द्वारा पंचपरमेष्ठि स्वरुप बनकर मोक्षतक साथ देता है। उपसंहार के द्वारा धर्म को पाँच स्वरुप से हमारे साथ उपस्थित रख सकते हैं।
१. हमारी दृष्टि को परमात्मा की दृष्टि में मिला देना धर्म है। प्रभु के सिवा हमें अन्यकुछ दिखाइ न दे।
२. हमारे स्वरुप में प्रभु का स्वरुप प्रगट करे वह धर्म। इसमें मैं स्वयं परमात्मा होने की अनुभूति प्रकट होती हैं।
३. हमारे आगे चलकर हमें प्रभु तक पहुंचा दे वह धर्म। , ४. हमारी चेतना में प्रभु के चरण को प्रगट करे वह धर्म। ५. हमें परमतत्त्व के सान्निध्य में रहने में सहाय करें वह धर्म।
देव, गुरु और धर्म की त्रिक आप जानते होगे। समकित प्राप्ति के ये तीन साधन है। सबसे पहले उपलब्धि धर्म की होती है। देव संबंध परोक्ष है। अव्यवहार राशी से व्यवहार राशी में सिद्ध परमात्मा का और
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