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शब्दबोध अर्थात् परमात्मा कहते हैं वह बोधि हैं। जब हम सुनते हैं तब वह समाधि हो जाता हैं। समाधि में हमें भगवान के सर्वज्ञ सर्वदर्शीत्त्व की अनुभूति होती हैं। हमारा ज्ञान आवरण में होता हैं परंतु परमात्मा का सर्वज्ञत्त्व हममें बोधान्वित होने लगता हैं। ऐसी अनुभूति होती हैं कि जैसे श्रीमंत का बेटा संपत्ति का प्रमाण या परिमाण से अनभिज्ञ होते हुए भी स्वयं को अधिकारी मानने लगता हैं। समाधि प्रगट होते ही परमात्मा का शब्दबोध प्रगट होता है। आचारांग में कहा हैं, वत्स! संसार में परिभ्रमण कर थकनेवाला ही तू नहीं है तू स्वयं सिद्ध है। जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओवाअणु संचरई सोऽहं। जैसा मैं हूँ वैसा तू है। मैं और तू समान हैं। अपने भीतर जब मैं तुझे झाँकता हूँ। तब तुझमें सिद्धत्त्व की अनुभूति करता हूँ। इस बोधि का स्वीकार कर और समाधि में प्रवेश कर। किसने कहा तू बुध्याविनापि हैं? नालायक हैं ? मैं तो कहता हूँ तू मैं ही बनने के लायक है। मैं तो तुझमें सिद्धत्त्व की लायकात देखता हूँ। परमात्मा का यह वाणीदान कि जैसा मैं हूँ वैसा तू हैं को हम माथेपर चढाते है क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा कह भी कैसे सकता हैं।
अपने बोध में हमें स्वयं को प्रगट करते हुए प्रभु कहते हैं... स्व से स्व में स्व को देखो। साक्षी में आ जाओ। दृष्टा बन जाओ। दृश्य में खो नहीं जाना है। दूष्टा बनकर उन्हें देखना है। भावों से घटना के साथ जुडो मत। घटनातीत बनकर हर कदमपर साक्षी बनकर घटना को देखते रहो। साँस लो पर हर साँस का अहसास करो। खाओ पर साक्षी बनकर देह को खिलाओ, पिलाओ। साक्षी बन जानेसे पदार्थ के प्रत्येक कण प्रसाद बन जाएंगे। प्रति प्रवृत्ति प्रभु का आर्शिवाद बन जाएगी। जीवन की सफर तो करनी हैं पर कोई क्षण निरर्थक नहीं होने देनी है। सार्थक तो तभी होगा जब तुम स्वयं स्वयं के साक्षी रहोगे। देह से चाहे जग रहे हो या सो रहे हो स्वप्न देख रहे हो या सोच रहे हो। खडे हो या चल रहे हो पर हर क्षण वहाँ स्वयं उपस्थित रहो। तुम्हारी उपस्थिती अनिवार्य है। इस बोधि का स्वीकार करो। इस स्वीकार में स्वयं का साक्षात्कार है। इस साकार में तुम स्वयं निराकार उपस्थित हो, अवस्थित हो। बोधिलेलो, बोधिशोधि करेगी। शोधि शुद्धि करेगी। शुद्धि से सिद्धि मिलेगी। सिद्धि तुम्हारे स्वयं की अवस्था है। मोक्ष उसकी व्यवस्था है। ऐसा केवल परमात्मा ही कह सकते हैं ऐसा समझकर, ऐसा सुनकर, ऐसा मानकर, ऐसा सोचकर, ऐसा स्वीकारकर नमो बोहिदयाणं की स्वरांजलि से परमात्मा को नमस्कार करते हैं। गणधर भगवान का आभार मानते हुए उन्हें धर्मदान की विनंती करते हैं।
।।। नमोत्युणं घोहिदयाणं ।।। ।।। नमोत्थुणं घोहिदयाणं ।।। ।।। नमोत्थुणं घोहिदयाणं ।।।
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