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अब उसने सुलसा के प्रत्यक्ष मुलाकात लेने का निर्णय किया और पांचवें दिन वह पहुँचा सुलसा के आँगन में । भिक्षा देहि माम् कहकर द्वारपर खडा हो गया। आँगन में भिक्षुक को देखकर सुलसा घर से पदार्थभिक्षा देने के लिए आँगन में आती हैं। सुंदरदर्शिणी सुलसा को देखा जिसकी आँखों में वात्सल्य से भरी हुई भक्ति छलकती थी। उसकी वाणी में वैराग्य झलकता था। भगवान के नियमों को धारण की हुई साक्षात देवी की तरह प्रगट हुई सुलसा को देखकर अंबड अचरज में डूब गया। उसने मृदुवाणी में सुलसा से पूछा, कल राजगृह में लगे समवसरण में महावीर के दर्शन करने आप क्यों नहीं आई? सुलसा ने कहा, यदि महावीर राजगृह में आए तो मुझे पता न लगे? मेरे महावीर तो निशदिन मेरे साथ हैं। राजगृह के जनसमुदाय को उद्बोधित करने आवे तो मुझे अवश्य पूर्वबोध हो जाता। आनंदाश्रु स्नपितवदनं गदगदं चाभिकंठम् अर्थात् हे अबंड ! महावीर प्रत्यक्ष पधारे तो मुझे पूर्वसूचनारुप देह रोमांचित होता, मुखपर पसीना आता और मेरा कंठ गदगद हो जाता। महावीर की आने की सूचना से मेरे अंग प्रत्यंग खिल जाते हैं। रोमराय खुल जाती हैं। प्रत्येक आत्मप्रदेश आनंदमय हो जाते हैं। सुलसा की बात सुनकर अंबड मन ही मन झेंपा। अपने मूलरुप में प्रगट होकर उसने भगवान का तथाकथित धर्मलाभ, बोधिलाभ, समाधिलाभ, सिद्धिलाभ का संदेश दिया। भगवान का बोधिलाभ पाकर रोमांचित सुलसा की आँखे स्नेहाश्रु से भर आयी।
परमात्मा के बोधिलाभ से लाभान्वित सुलसा आगामि चोबीसी में निर्मम नाम के पंद्रहवें तीर्थंकर होगी। बोधिलाभ वीतराग से प्राप्त होकर,वीतराग बना देनेतक साथ देता है। उसने परमात्मा के कथन को त्रैकालिक , त्रिदर्शी और त्रिविधरुप से दर्शाया। उसने कहा, धर्मप्रिय ! परमात्मा भक्तों को उपदेश देते हैं, शिष्यों को
आदेश देते हैं और अंतेवासी को संदेश देते हैं। इसे समझकर इसका स्वीकार करना होता हैं। स्वीकारने पर उपदेश की उपासना करनी होती हैं, आदेश का आचरण करना होता हैं और संदेश को स्वयं में समा लेना होता हैं। बोध परमात्मा में से सहज प्रगट होता हैं और दान के रुप में सहज परिणत होता है। प्रेम से दिया जाता है उसे भेंट, प्रसाद और प्रभावना कहा जाता हैं। आवश्यकता से दिया जाता हैं उसे दान कहा जाता हैं। बेटे का जन्मदिन या विवाह हो तब स्वजनों को दिया गया भोजन दान नहीं पार्टी हैं परंतु भूखे को दिया गया भोजन दान कहलाता है। शास्त्रों में नवप्रकार के दान का कथन मिलता हैं परंतु बोधिदान तो सिर्फ परमात्मा ही करते हैं। बोध के भी तीन प्रकार हैं - शब्दबोध, संस्कारबोध और वासितबोध । बोधिदान, बोधिलाभ और बोधिबीज ऐसे तीन बोधि के परिणाम हम देख चुके हैं। जो हमें मिलता हैं वह बोधिलाभ हैं। जो हममें समा जाता हैं वह बोधिबीज हैं। हमारी चेतना के खेत में बोधि के बीजों का वपन होता हैं। सद्गुरुरुप किसान बोधि के बीजों का वपन करते हैं। बोध से सिंचाई करते हैं। सत्संग और स्वाध्याय से संस्कारित करते हैं। संस्कारित होनेपर वह हममें वासित हो जाता हैं अर्थात् हममें बस जाता हैं। जो वासित होता हैं वहीं फलित होता हैं। आनंदघन महाप्रभु कहते हैं - वासितबोध आधाररे। वासितबोध का आधार हृदय हैं। वासित होनेपर, संस्कारित होनेपर, फलित होनेपर वह प्रगट हो जाता
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