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नमोत्थुणं - धम्मदयाणं
धर्म अर्थात् अरिहंत परमात्मा का सर्वजीव हितविषयक सर्वोच्चभाव। धर्म अर्थात् सिद्ध परमात्मा का स्वाभाविक अनुग्रह। धर्म अर्थात् आचार्यों का शुद्ध आचरण का विशुद्ध धर्मसंदेश। धर्म अर्थात् उपाध्याय की उपासना की सर्वोच्च धर्मकला। धर्म अर्थात् साधु भगवंतों की अप्रमत्तता का आराधना मार्ग।
धर्म अर्थात् स्व का स्व के साथ जुड जाना। धर्म अर्थात् महाकरुणा। धर्म अर्थात् भावदया।
धर्म अर्थात् आत्म स्वभाव। धम्मदयाणं अर्थात् धर्म देनेवाले। धर्म का दान करनेवाले। दान स्वयं एक धर्म हैं फिर धर्म का दान कैसे? ऐसा स्वाभाविक प्रश्न हमें हो सकता हैं। दान के अनेक प्रकार हैं - अन्नदान, जलदान, आश्रयदान, ज्ञानदान आदि अनेक प्रकार हैं। परंतु इन दानों में धर्म नाम का कोई दान नहीं होता हैं। यद्यपि दान को ही महानधर्म माना जाता हैं। धर्म के चार प्रकारों में दान प्रथम धर्म हैं। सभी धर्म और पूर्व परंपरा में दान को श्रेष्ठ माना हैं। ये सर्वदान तात्कालिक पर्यंत समाधान देते हैं। जैसे अन्नदान क्षुधा अर्थात् भूख का शमन करता हैं। जलदान कुछ समय के लिए प्यास बुझा सकता हैं। इसतरह सभी दान तात्कालिक दुःखशमन करने में सफल रहता है। तीर्थंकर भगवान जो धर्मदान करते है वह केवल सामयिक नहीं परंतु सांबंधिक फल देता है।
दान की प्रस्तुत रुपरेखा के अनुसार धर्म कोई पदार्थ नहीं है कि अन्यदान की तरह दिया जा सके। इसलिए दान के विषय में धर्मदान नहीं होता है पर नमस्कारदान होता है। नमस्कारदान अन्यदान से अलग हैं। अन्नदान आदि आवश्यकता होनेपर मांगा जाता हैं। नमस्कार देनेवाला अपनी आवश्यकता के लिए दिया जाता है। अन्नादि लेनेवाला स्वयं की आवश्यकता हेतु माँगता हैं। नमस्कार कभी किसी का आवश्यक हेतु नहीं बन सकता हैं। नमस्कार अहोभाव हैं जो प्रेम से दिया जाता हैं समर्पित किया जाता हैं। जैसे पिता अपनी पुत्रि को प्रेम से देता है उसे कन्यादान कहा जाता हैं। उसीतरह परमात्मा धर्म दान करते हैं। धर्मदान की घोषणा नहीं होती हैं। धर्म जब ध्वनि के साथ घोषित होता हैं तब वह दान मेंसे देशना बन जाता है। धर्मदान के समय तो धर्ममौन हैं। देशना में वाचा प्रगट होती हैं। धर्म जब हमारी आवश्यकता बनता हैं तब वह दान के रुप में प्रगट हो जाता हैं। देनेवाला और लेनेवाला दो ही इसे जानते हैं। सही मार्ग में हमें आवश्यकता महसूस हो तो परमात्मा से हमें धर्म अवश्य प्राप्त होता हैं। यह प्रक्रिया, प्रवृत्ति या विधि विधानवाला धर्म नहीं परंतु हमारी स्वयं की साहजिकता को प्रगट करनेवाला स्वभाव है।
धर्म के दो प्रकार हैं - स्वभाव और स्वरुप। स्वभाव प्रकृतिधर्म हैं तो स्वरुप ब्रह्मधर्म हैं। जब तक आप स्वभाव को नहीं समझेंगे तब तक आप स्वरुप को नहीं समझ पाएंगे। जैसे ही आप भीतर जाएंगे तो पहले मिलेगा
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