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में भी यह साथ रहे। इसीलिए उवसग्गहरं स्तोत्र में कहा हैं तुहस्समत्ते लद्धे अर्थात् बोधि के रुप में आपको मैं सम्यक रुप से लब्ध कर सका हूँ, प्राप्त कर सका हूँ। अब मैं बिना विघ्न मुक्ति पा सकता हूँ। ऐसी विश्वास और भक्ति से भरा हुआ हृदय आपके चरणों मे अर्पित हुआ हो तो हे प्रभु! दिज्जबोहिं भवे भवे पास जिणचंदं। मुझे भवों भव तक बोधि दे दो। किं कपुर स्तोत्र में कहा हैं बोधिबीजं ददातु यहापर बोधिबीज को शिवपदतरुबीज कहा हैं अर्थात् बोधि मोक्ष का बीज है। जिसतरह बीज धीरे धीरे वृक्ष के रुप में फलित होती हैं उसीतरह बोधि का बीज सिद्धि का बीज बन जाता हैं।
लोगस्स में बोधि को लाभ के रुप मे स्वीकारा हैं। इसलिए कहा हैं बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमंदिंतु बोधि लाभरुप उत्तम समाधि मुझे प्राप्त हो। यहाँ बोधि समाधि की पूर्वप्राप्ति हैं। बोधि का लाभ समाधि हैं। बोधि मिल जाती हैं तो समाधि अवश्य मिलती हैं। बोधि एक सम्यक परिणाम होने से इसे समकित भी कह सकते हैं। बोध
और बोधि में क्या फरक हैं जानते हो? बोध प्रत्यक्ष दिया जाता हैं। बोधि संदेश के रुप में प्रगट होती हैं। अर्थात् परोक्ष में भी प्रगट हो सकती हैं। बोध को उपदेश और बोधि को संदेश कहा जाता हैं। बोध उपदेश होने से अनेकों के बीच में दिया जाता है। बोधि योग्यता के अनुसार उचित समयपर योग्य व्यक्ति को भेजा जा सकता हैं। बोधि को स्पष्टरुप में समझना हो तो सुलसा को स्मृति में लाना होगा। संदेश को आप लोग एस.एम.एस. कहते हैं। मुझे यह शब्द बहुत अच्छा लगता हैं इसके साथ मेरे महावीर का सेटींग हैं। एस. अर्थात् सुलसा। एम. अर्थात् महावीर। एस. अर्थात् संदेस। एस.एम.एस. अर्थात् सुलसा को महावीर का संदेश। दूसरी तरह से देखे तो एस. अर्थात् शास्त्र एम. अर्थात् मैं/मुझे एस. अर्थात् संदेश। सत् पुरुष का मेरे प्रति संदेशअर्थात् शास्त्र।
परमात्मा की चंपानगरी की देशना में अंबड नाम का सन्यासी गया था। उपदेश सुनकर जाते समय भगवान से कहा मैं राजगृह जा रहा हूँ। आप भी राजगृह पधारने की कृपा करना। प्रसंगवश भगवान ने कहा, अंबड! राजगृह में सुलसा नाम की श्राविका हैं। वह अध्यात्म योगिनी हैं। उसके आत्मीय संवेदनों में सहजबोधि, सुलभबोधि और सम्यकबोधि के रुप में राजगृह में हमारी उपस्थिति का अनुभव हो सकता हैं। उसे हमारा बोधिस्मरण कहना।
अंबड! वैक्रियलब्धि संपन्न सन्यासी था। भगवान के मुंह से किसी स्त्री की सराहना सुनकर उसके पुरुषत्त्व के अहं को ठेस पहुंचती हैं। बदला कहो या परीक्षा लेनी की भावना से राजगृह आकर अपने लब्धियोग से लोगों को प्रभावित करने के लिए वह पूर्व दिशा के द्वारपर ब्रह्मा का रुप बनाकर उपस्थित हो गया। राजगृह की जनता उमड पडी। शायद ही नगरी में कोई ऐसा होगा जो न आया हो परंतु न दिख रही थी केवल सुलसा। अंबड भी कहाँ रुकनेवाला था दूसरे दिन उसने दक्षिण दिशा में विष्णु का रुप धारण किया। फिर भी सुलसा न आयी। तीसरे दिन उसने पश्चिम दिशा में महेश का रुप धारण किया। तब भी सुलसा नहीं आयी। अंतिमदिन उसने उत्तर दिशा में भगवान महावीर का रुप धारण कर समवसरण की रचना की। तब भी सुलसा को न देखकर उसे अत्यंत आश्चर्य हुआ।
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