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उनकी सेवा के फल स्वरुप आपको कुछ भेंट दिया जाए तो वह उन्होंने ही दिया हैं ऐसा माना जाता हैं। ऐसा कहकर धरणेन्द्र ने नमि विनमि को गौरी प्रज्ञप्ति आदि ४८,००० विद्याएं भेंट की और वैताढ्य पर्वतपर श्रेणियों में नगर बसाकर अक्षय राज्य करने की आज्ञा दी और यहा से लौटने की बिनती की। लौटते हुए धरणेन्द्र ने अहंकारी होकर मर्यादाभ्रष्ट होनेपर विद्याओं का विसराल हो जाने का कहा और यह सब शरण ग्रहण का प्रभाव हैं इस बात को रत्नो कीं दिवालपर अंकित कर स्वस्थान लौट गए।
शरण्य को चार भागों मे बाटा गया हैं - १. अरिहंत परमात्मा २. सिद्धपरमात्मा ३. साधुमहात्मा ४. केवलिपज्ञप्त धर्म । इसमे हमें नीचे से उपर जाना हैं। प्रथम शरण धर्म की ग्रहण करनी चाहिए। धर्म के प्रति हमारा समर्पण होना चाहिए। अंत:करण धर्म को अर्पण कर देनेपर धर्म का काम हमें आगे बढाना हैं। धर्म प्रथम सोपान हैं जो हमें ही चढना होता हैं। दूसरे सोपान तक ले जाने का काम धर्म करता हैं। कईबार हम केवल प्रथम सोपानपर अटक जाते हैं। धर्म चर्चा में उलझ जाते हैं। पुण्योदय से धर्म धारण कर सके तो धर्म का काम साधु की शरण में ले जाने का हैं। यह दूसरा सोपान भी बहुत मूल्यवान हैं। यह एक प्रत्यक्ष चेतनामयी मुलाकात है। समक्ष बैठकर अपने भीतर को खोल देने का अमूल्य अवसर केवलमात्र इसी पद में संभव होता है। वैसे एक बात है आप यह करते हो । प्रत्यक्ष बैठकर मुलाकात भी लेते हो। अपना भीतर भी खोलते हो परंतु आपका भीतर भी अलग होता है। भीतर की व्याख्याए हमारी और आपकी बहुत अलग है। हमारा भीतर कहने का मतलब होता है बहिर्मुखी से अंतर्मुखी होना । जिस भीतर को लोक व्यवहार में नहीं खोल सके हो उसे खोल देना भीतर की आँखो से देखकर गुरु के समक्ष प्रगट हो जाना, अत:करण को अर्पित कर देना, जिसका दूसरा नाम आलोचना हैं। यह हैं भीतर। पूर्व की समस्त दोषों का निवारण यहाँ होता हैं।
आपकी तो भीतर की परिभाषा ही अलग हैं। बेटा-बेटी, बहू, पति-पत्नी आदि की वे कथा जो किसी से नहीं कह सकते हो वह भीतर की व्यथा आप साधु के पास खोलते हो । साधु माँ-बाप की जगह होते है। यहाँ से बात कही बाहर नहीं जाती। ऐसे पूर्ण विश्वास के साथ आप अपने भीतर की व्यथा व्यक्त करते हो। साधु माँ-बाप की जगह होते हैं यह बात सही है परंतु वह हैं भीतर के वात्सल्य की बात। गुरु का वात्सल्य तीर्थंकर नामकर्म का एक कारण माना जाता है परंतु पंचायती के लिए नहीं । अध्यात्म मार्ग में आनेवाली भीतर की बाधाओं को व्यक्त कर उसका परिहार करने हेतु गुरु के पास भीतर के भेद खोले जाते है। अध्यात्म मार्ग से खोया गुरु के पास आकर पुनः मार्ग को पा सकता है। शरण में लेकर साधु भीतर को भेद देता है । अरिहंत के अस्तित्त्व का हमारी चेतना में साक्षात्कार कराते हैं और सिद्धत्त्व का स्वरुप प्रगट करते हैं।
आचारांग सूत्र में शरण के साथ त्राण शब्द को जोडकर सरणदयाणं को बहुत उपर उठाया गया हैं। त्राण अर्थात् दुःख, आपत्ति और विडंबनाओं से बचने का मार्ग, शरण अर्थात् सुख, शांति, संपत्ति और स्वस्थता प्राप्त होने की व्यवस्था । शरण दुःख से, विडंबनाओं से मुक्त होने के लिए नही लेकिन भीतर की शांति प्रकट होने की व्यवस्था हैं। यह सूत्र हैं नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा पुण्य से प्राप्त धन, संपत्ति, परिवार न त्राण दे सकते हैं न शरण। शरण हमारी भीतर की एक व्यवस्था हैं जिसे हमें भीतर ही प्रकट करनी हैं।
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