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सरणदयाणं समझने के लिए हमारे सामने तीन बातें आती हैं- शरण, शरण्य और शरणागत। शरण देना, शरण लेना, शरण में आना, शरण में जाना, शरण्य को पहचानना, शरणागत हो जाना आदि कुछ बातें इस पद की व्याख्याको व्यक्त करती हैं। शरण कोई चीज या पदार्थ नहीं हैं कि देता लेता हुआ दिखाई दे । शरण एक ऐसी अवस्था हैं जो समर्पण की चरम सीमा में प्रगट होती हैं। शरण एक ऐसी व्यवस्था हैं जो शरण्य के प्राप्त होनेपर स्वीकार की जाती हैं। शरण प्रक्रिया दो तत्त्वों के मिलने से बनती हैं। शरण्य और शरणागत दो तत्त्व हैं। जैसे विवाह में दुल्हन दुल्हे के एक एक हाथ को मिलाया जाता हैं और सप्तपदी के साथ संबंध का स्वीकार किया जाता हैं । यहाँपर शरणागत को स्वयं के ही दोनों हाथ विधि पूर्वक जोडने होते हैं। दोनों हाथ की हथेलियों को आकाश की ओर खुली छोडकर अंजलि बनाए। इसी मुद्रा में मांगलिक के प्रथम चार पद चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलि पन्नत्तो धम्मो मंगलं को धारण करे । बाद में दोनों हथेलियों को समान स्पर्श में बंद करें यह करते समय अंगुलियों के बीच में छेद नहीं होना चाहिए। हथेलि के और अंगुलियों के छोर एक दूसरे को पूर्णतया मिले हो ऐसे रहे तब चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवल पन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो का स्मरण करे। अब इसी मुद्रा में दोनों हथेलियों को अर्थात् जुड़े हुए हाथों को हृदय के पास लाइए। जहाँ आपका हार्ट चक्र कहो या अनाहत चक्र के पास रखे। आखें बंद कीजिए । आत्मभाव में आदरभाव मिलाकर स्मरण कीजिए कि लोक में उत्तम और मंगल स्वरुप इन चारों तत्त्वों को आप अपने सहस्त्रार चक्र में स्वीकार रहे हैं। आज्ञा चक्र में उतार रहे हैं । अहोभाव से भरा हुआ अनाहत चक्र इन चार तत्त्वों को धारण करने के लिए उत्सुक हैं। धीमे और गंभीर सांसो के साथ अनाहत भाव में धारा को बहने दे। भाव विभोर होकर अनुभूति कीजिए। ये चारों तत्त्व आपको पवित्र कर रहे हैं। चारों तत्त्वों का मंगलस्वरुप आपके भूतकाल के कर्मों का प्रक्षालन कर रहे हैं। चारो तत्त्वों का उत्तमस्वरुप आपके वर्तमान को उत्तम और पवित्र कर रहे हैं। चारो शरण्यतत्त्व आपके भावी सिद्धावस्था का आपमें निर्माण कर रहे हैं। अब दोनों हथेलियों को आपस में मिलाकर अपनी आँखोंपर और मस्तकपर लगाकर उर्जा संपादित, संकलित और समाहित करने की विधि संपन्न करे ।
शरण ग्रहण करने की यह प्रक्रिया जिनसे होती हैं वे शरणागत हैं, शरण में जो लेते हैं वे शरण्य हैं। मांगलिक में अरिहंतादि चारों तत्त्व शरण्य हैं। पवज्जामि शरणागत हैं। शरण्य शरणागत को शरणागति देता हैं। जब हम पंजाब में थे कांगडा गये थे। वहाँ पास में एक पहाड हैं जिसे धर्मशाला कहते हैं। वहाँ उपर कुछ चढाईपर मकडोलगंज नाम का एक स्थान हैं जहाँपर एक बौद्ध मठ हैं। विहार करते हुए हम वहाँ पहुंचे थे। विश्राम का स्थान ढूंढते हुए इस मठतक पहुंचे। यह मठ भारतदेश का आश्रित मठ हैं । मठ में आश्रित साधुओं की रहने की और भोजनादि की व्यवस्था भारत सरकार द्वारा चलती थी। हमने वहाँ एक रात विश्राम के लिए स्थान की गवेषणा की। उन्होंने स्पष्ट इनकार किया तब हमारा चिंतन शरण शब्दपर गया कि हम शरण्य हैं या शरणागत ? विदेश से आया शरणागत यदि भारत के आजीवन पदयात्री भारतीय संत को एक रात विश्राम नहीं लेने देते हैं वे शरण्य हैं या शरणागत हैं?
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