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स्ववृत्ति को समझने से जीवत्त्व जागृत होता हैं। जीव हैं अत: जीवत्त्व तो हैं परंतु बिना जागृति का जीवत्त्व अभावमय लगता हैं। जीव में जीवत्त्व के दर्शन होते हैं तो शिवत्त्व प्राप्त होता हैं। जीवदयाणं अर्थात् क्या ? जीवदयाणं के दो अर्थ होते हैं - १. जीव की दया खाना और २. जीव को जीवत्त्व देना उसका नाम जीवदयाणं। वैसे एक बात सही हैं कि हमारे प्रति कोई दया करता हैं तो हमें अच्छा नहीं लगता। रास्तेपर स्कुटर से जाते हुए अचानक स्कुटर गिर जाए तो लोग इकट्ठे हो जाते हैं। पूछने लग जाते हैं कहाँ लगा ? सांत्वना देने लगते हैं। गिरनेवाले की क्या दशा होती हैं? दया पात्र होने के बावजुद भी हमें दयनीय लगना अच्छा नहीं लगता हैं। जगत् हमारी दया करता हैं हमें अच्छा नहीं लगता परंतु इससे हमारी दयनीयता समाप्त नहीं होती हैं। .. शास्त्र में दया के दो प्रकार बताए हैं - स्वदया और परदया। परदया अर्थात् दूसरे जीवों की दया। परदया तो समझ में आती हैं परंतु स्वदया समझना बहुत मुश्किल हैं। अनंत ऐश्वर्य संपन्न केवलज्ञान और केवलदर्शन का स्वामी पूर्ण सत्त्व संपन्न होनेपर भी हमारा जीव कर्माणुओं से ढका हुआ होने से फल नहीं दे सकता हैं। यह कितनी दयनीय दशा हैं हमारी ! बँक में बहुत बडा खाता चल रहा हैं परंतु इसपर सिल लग जाने से वह हमारी अमानत नहीं रह पाती। आज हम स्वयं के ही नहीं रह पाए। हमारा पूर्ण सत्त्व सत्ता में होनेपर भी हम कंगाल हैं। नमोत्थुणं का यह पद पुनः हमारा सत्त्व जागृत करता हैं। हमारा स्वयं का पराक्रम अंगडाई लेकर उत्सुक होता हैं। परमतत्त्व जीवदयाणं के माध्यम से हमें कहते हैं वत्स ! कब तक तू तेरे से छिपा रहेगा? गलती को सुधार ले। परमार्थ में प्रवेश कर। परमपुरुष मस्तकपर हाथ रखकर कहते हैं - परवस्तुमां नहीं मुंजवो, ऐनी दया मुझने रही। तेरा सत् स्वयं संपूर्ण वैभव संपन्न हैं फिर भी परपदार्थ में तेरा वह विलय हो चुका हैं। मुझे तेरे लुप्त हुए परम अस्तित्त्व की दया आती हैं। भावपूर्वक नमोत्थुणं में जीवदयाणं पद की उपासना करते हैं तो परमतत्त्व को हमारी दया आती हैं। सिर्फ दूसरों के दुःख को देखना दया नहीं हैं। दया तब सार्थक हैं जब दयावान दयालुको दुःखो से मुक्त कराता हैं।
दया तो जीव को ही आती हैं। अजीव को दया नहीं होती हैं। मान लीजिए मेरा एक पाँव अकड गया तो मुझे मेरे पाँव की दया आती है। मुझे ही उसे खोलकर नीचे करना पडता हैं। जीव जीव के प्रति दया करता हैं तब वह पहला व्रत निपजाता हैं। चाहे हमारे पाँच महाव्रत हो चाहे आपके बारह व्रत हो। सबका प्रथम व्रत तो जीवदया ही हैं। जैन धर्म का दूसरा नाम दयाधर्म हैं। शास्त्रकार कहते हैं -
कल्लाण कोडी कारिणी, दुग्गई दुह निट्ठवणि।
संसार जलतारिणी, एगंत होई जीवदया। दया तीन काम एक साथ करती हैं - १. कोटी कल्याण करती हैं । २. दुःख और दुर्गति का नाश करती हैं और ३. संसार में भ्रमण करते हुए जीवों को तारकर पार उतारती हैं। यह जीवदया ये तीनो काम एकसाथ करती हैं। एक ओपरेशन से तीन रोग खतम होते हैं। सोचिए घर में आप घूम रहे हैं। किसी ने आपको कह दिया कि यहाँ चींटियों की लाईन हैं आप ध्यान देते हुए चलेंगे। आप अपने बच्चों को भी सूचना करोंगे यहाँ देखकर चलना। बच्चा पूछेगा क्यों ? आप कहोगे चींटी की लाईन हैं इस लिए। बच्चा कहेगा उसमें क्या हैं? चींटी मेरा क्या बिगाडेगी ? आपको समझान होगा चींटी तेरा कुछ नहीं बिगाडेगी परंतु तू यदि चींटी के उपर पाँव रखेगा वह मर
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