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नहीं निकला सोचने लगे क्या करु? गुरुदेव ने कहा हैं, प्राणी जीवों की रक्षा करना पहला धर्म हैं। सामायिक संपन्न होने तक शांति और समाधिभाव में स्थिर रहे। समय पूरा होते ही सामायिक संपन्नकर चाकू लेकर चमडी समेत पाँव काउतना हिस्सा काटकर अलग किया। मकोडे के प्राणों को तनिक मात्र भी कष्ट नहीं होने दिया।
हमारे मन में एक प्रश्न हो सकता हैं कि जीवत्त्व हमारी स्वायत्त सत्ता हैं। तो प्रभु क्या हमें दान देंगे? जीवदयाणं पद की सार्थकता क्या हैं? इसका समाधान करना जरुरी हैं। जीव के साथ जीव, जीवत्त्व, शिवत्त्व और भव्यत्त्व ऐसे चार अवस्थाए जुडी हुई हैं। जीव की अपनी स्वायत्त सत्ता तो हैं परंतु स्वयं के जीवत्व के प्रति जाग्रत रहना स्वयं के अस्तित्त्व का बोध होना बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। केवलमात्र पर्याय को ही स्वयं ही समझने की गलती जीव अनादिकाल से करता आ रहा हैं। परमातत्त्व जीवत्व में अस्तित्त्व का अहसास प्रगट करते हैं। भव्यत्त्व का बोध प्रगट करते हैं। शिवत्त्व का सत्त्व प्रगट करते हैं और सिद्धत्त्व का संयोग प्रगट करते हैं। भेद विज्ञान की संपूर्ण प्रक्रिया देनेवाले वे जीवदयाणं पद के सूत्रधार माने जाते हैं।
छोटी छोटी बातों की याचना करनेवाले हम जीवदयाणं को कैसे पहचान सकते हैं। अनंत गणधर भगवंत कहते हैं माँगना हैं तो जिनेश्वर से ही माँगना । स्वयं का जीवत्त्व ही माँगना अनंत संसार में सबकुछ पाकर हम स्वयं को ही खो चुके हैं। पैसे के लिए परदेश गए। पुत्र के लिए पत्थर जितने देव पूजे। सबकुछ पाया स्वयं को खोकर। जब स्वयं के खो जाने का बोध होता हैं तब इतना विलंब हुआ होता हैं कि शिकायत का समय नहीं रहता हैं। किस से शिकायत करे किस से बिनती करें? कि मैं खो चुका हूँ। मुझे खोज दो। अनंत संसार से मुझे बाहर निकालो।
आज हम स्वयं को ही दान में लेने के लिए निकले हैं। जीवदयाणं के दो प्रकार हैं - अरिहंत की ओर से मिलनेवाला और सिद्ध की ओर से मिलनेवाला। अरिहंत परमात्मा जब दीक्षा लेते हैं तब करेमि भंते सूत्र का उच्चारण करते हैं उस समय जगत् के सभी जीवों को जीवन का दान मिलता हैं परमात्मा जब समवसरण में देशना देते हैं तब जीवों में जीवत्त्व प्रगट कर सिद्धत्त्व प्रगट करते हैं। एक जीव जब सिद्ध होता हैं तब अव्यवहार राशी का एक जीव व्यवहार राशी में आता हैं। यहीं से प्रारंभ होता हैं जीव के जीवन का विकास क्रम। जीवदान के माध्यम से प्रभु स्वरुपदान देते हैं। इस धर्म का स्वीकार करने के लिए एक शर्त हैं जीवनदान पाना हैं तो जीवनदान देना होगा। संसार का नियम हैं जो चीज देते हैं वहीं हमे मिलती हैं। जीवदया से प्रारंभ होनेवाली यह यात्रा शिवदयाणं स्वरुप सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु में संपन्न होती हैं।
व्यवहार राशी में लाते हैं सिद्ध और व्यवहार राशी की विकास यात्रा सम्हालते हैं अरिहंत। यह बात निश्चित हो गई की सिद्ध भगवान देते हैं जीवत्त्व और अरिहंत परमात्मा देते हैं शिवत्त्व। अरिहंत परमात्मा हमें तीन बार महादान करते हैं।
१. तीर्थंकर नाम कर्म का निकाचन करते समय सर्व जीवों के सिद्धत्त्व की मंगलकामना करते हुए हमारे जीवत्त्व में सिद्धत्त्व के दर्शन करते हैं। सविजीवकरुशासन रसिक कर भव्य भावना से वे हमारे शिवत्त्व की यात्रा का उद्घाटन करते हैं।
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