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२. अब तक वह पापों को आवश्यक मानता था । उसे उपयोगी मानकर प्रमुखता देता था। भोगरसों को महत्त्वपूर्ण मानता था। अब वह पापों को महत्त्वपूर्ण नहीं परंतु कतृत्त्व मानता है।
३. इससे पूर्व उसमें माता पिता के प्रति आदर, अतिथि सत्कार या गरीबों के प्रति करुणाभाव रुप औचित्य नहीं था। मार्गाभिमुख होते ही उसे अपने औचित्य का बोध हो जाता हैं। धर्म के प्रति द्वेष समाप्त होता है। धर्मांनुरागी बनता है । उसे भोग और योग दोनों सुहाते हैं।
मार्गांभिमुख हुआ जीव मार्ग के उचित आचरणों का स्वीकारकर मार्ग का स्वीकार करता हैं। मार्गपर आता है। मार्ग में आता है। मार्ग में पतित हो जाता है उसे मार्गपतित कहते है ।
मार्गांनुसारी में जीव मार्ग का अनुसरण करता हैं । यहाँ से जीव के आध्यात्मिक विकास का प्रारंभ होता हैं। मार्ग में आते ही मोक्ष बीज का जो वपन हुआ था वह यहाँ विकसित होना शुरु कर देता हैं। विकसित होता हुआ वह वृक्ष होकर मोक्षरुप फल पाने में सफल हो जाता हैं। इस स्थिति में जीव की आत्मदशा अत्यंत निर्मल कोमल और पवित्र हो जाती हैं। उनके भाव जैसे चित्र अंकित करने से पूर्व दिवाल किंवा भूपृष्ठ को अत्यंत साफ कर अंकित करने योग्य बनाया जाता हैं वैसे ही अत:करण को निर्मल और पवित्र किया जाता हैं। इसमें क्रियात्मक और गुणात्मक धर्मों की पूर्व भुमिका में स्वधर्म को अत्यंत आवश्यक माना जाता है। परमात्मा महावीर ने अंतिम देशना में मोक्षमार्ग नामक स्वतंत्र अध्ययन की प्ररूपणा करी है। अनादि से अनजाना होनेपर भी यह मार्ग वर्तमान में सहजरुप से जाना जा सकता है। यह मार्ग शाश्वत है। ज्ञान दर्शन, चारित्र को ही मोक्ष का मार्ग कहा गया है। तत्त्वार्थ में भी कहा गया है सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । सम्यक्ज्ञान अर्थात् स्वप्रकाशक ऐसी आत्मा की शक्ति । दर्शन अर्थात् आत्मा का अनुभव और चारित्र अर्थात् त्रिकाली स्वभाव की स्थिरता ।
मार्गगामी आत्मा मार्गदर्शन का श्रद्धापूर्वक अनुसरण करता है। किसी कारणविशेष से स्खलना या भ्रम हो तो भी मार्गगामी साधक मोक्षमार्ग पर श्रद्धावनत होकर तात्त्विक देशना का श्रवण करता है। सत्य मानता है और मार्ग का आग्रह रखता है। मार्गगामी के दो प्रकार है - सापाय और निरुपाय । जो कर्म निरुपक्रम अर्थात् अत्यंत क्लिष्ट, मोहनीय अंतराय आदि ऐसे कर्म जो पुरुषार्थ करनेपर भी टूटते नहीं है और विराधना या स्खलना हो जाती है उसे सापाय कहते है । उसमें विपरीत अ-निरुपक्रम अर्थात् सोपक्रम कर्म जो पुरुषार्थ का धक्का लगते ही दूर हो जाते है। उसका क्षयोपशम हो जाता है और विपाकोदय नहीं रहता है उसे निरपाय कहते है। दोनों ही सम्यग्दर्शनादि बीजवाले ही होते हैं। दोनों मार्गगामी होने से दोनों का पुरुषार्थ मार्गपालन का ही होता है।
मार्ग को जानना अत्यंत आवश्यक है। मार्ग की चर्चा करते हुए केशी श्रमण ने गौतमस्वामी से पूछा थामग्गे य इइ के वुत्ते ? मार्ग किसे कहा गया हैं ? उत्तर में मार्ग की प्ररूपणा करते हुए गौतम स्वामी ने कहा- समग्गं तू जिक्खायं एक मग्गे हि उत्तमे। जिनेश्वर भगवान द्वारा कथित सन्मार्ग ही एक उत्तममार्ग हैं। उस मार्ग के दाता परमात्मा स्वयं जहाँ चलते हैं वहाँ मार्ग बनता है। उनको हमारी तरह मार्ग खोजना नहीं पडता। सरलता से हमें इस सन्मार्गपर चलना हो तो एक ही उपाय है परमप्रभु के चरणों की उपासना । जहाँ जहाँ चरण वहाँ वहाँ मार्ग । चरण पूजते जाओ मार्ग में आगे बढते जाओ। चरणों की उपासना करनेवाले को मार्ग का पता हैं या नहीं हैं इसकी
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