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नमोत्थुणं - सरणदयाणं
जो स्वयं मे पूर्ण और संपन्न होते हैं वे ही अन्य को शरण दे सकते हैं। जो शरण देकर शरणागत को स्वयं के समान पूर्ण संपन्न बनाते हैं वे शरणदाता कहलाते हैं।
परमात्मा की शरणागति अर्थात् उनके स्वरुप का ध्यान। नामस्मरण, पूजन, वंदन, सत्कार और आज्ञापालन द्वारा शरणागत उनका शरण स्वीकार सकता हैं।
जो हमें जिनशासन में आसन देते हैं वासन (बसेरा) देते हैं उन्हें हम शरणदाता कहते हैं। आसन अर्थात् बैठना। शिष्य या साधक शरण में आते ही प्रश्न करते हैं - कहं आसे, कहं सये मैं कहाँ बैठ और कहाँ सोउ ? आस् धातु से आसन शब्द बनता हैं। आसन शब्द के अलग अलग प्रयोग और उपयोग होते हैं। आराधना करते समय जिसे बिछाकर बैठा जाता हैं उसे आसन कहते हैं। योग द्वारा व्यवस्थित प्रक्रिया करके देह को लय में लाया जाता हैं उसे भी आसन कहते हैं। इसपर से योगासन कहते हैं। बस, ट्रेइन आदि में आप जो सीट ग्रहन करते हैं उसे भी आसन कहते हैं। वासन अर्थात् बसना अर्थात् बसेरा। शरण में आने के बाद शरणागत जब शरण में हमें स्वीकार लेता हैं तब वह हमारा बसेरा बन जाता हैं।
शरण शब्द समस्त भारत की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण शब्द रहा हैं। जैन संस्कृति में शरण स्वीकारने की पूरी पद्धति को मांगलिक कहा जाता हैं। चार तत्त्व को शरण के रुप में स्वीकार करने से पूर्व इसे मंगल और उत्तम के रुप में मान्य किया गया हैं। लोक में मंगल चार हैं, उत्तम चार हैं और इन चारों को शरण के रुप में स्वीकार किया जाता हैं। गीता में शरण स्वीकारने के लिए सर्वधर्म का त्यागकर मेरी शरण का स्वीकारने का कहा गया हैं। बौद्ध धर्म में बुद्धं शरणं गच्छामि कहा हैं। इसतरह सर्व संस्कृति और धर्म में शरण को विशेष स्थान दिया गया हैं। शरण को स्वीकारने के लिए मांगलिक में पवज्जामि शब्द का प्रयोग हुआ हैं। पवज्जामिका अर्थ होता हैं स्वीकार करता हूँ। शब्दार्थ हैं प्रवज्या अर्थात् दीक्षा लेना। दीक्षा में सर्व परिधान का त्याग करके नया परिधान धारण किया जाता हैं। इसमें सर्व संबंधों का परित्यागकर परम के साथ के संबंधका स्वीकार किया जाता हैं।
. भक्तामर स्तोत्र में शरण की जगह आलंबन शब्द का प्रयोग हैं। आलंबन अर्थात् सहयोग। आलंबन को समझाने के लिए यहाँ एक उदाहरण दिया हुआ हैं - जब हम भवसमुद्र में डूब रहे हो स्वयं को बचाने में हम असमर्थता का अनुभव करते हो उस समय सुध बुध समझ के साथ परमतत्त्व को याद करते हैं, उसे आलंबन कहते हैं। आलंबन के समय शरण का स्वीकार नहीं होता है क्योंकि शरण में समर्पण होता हैं। आलंबन में समर्पण की नहीं सहयोग की आवश्यकता है। मान लिजिए आपने किसी व्यक्ति को किसी काम के लिए सहयोग किया तो क्या वह आपको अपना समस्त समर्पण करेगा? आलंबन और शरण में जो अंतर हैं वह स्पष्ट रहना चाहिए। स्पष्टता के अभाव में मांगलिक जैसी सर्वोत्तम पक्रिया हमारे हाथ से निकल चुकी है। शरण के स्थानपर आलंबन का प्रयोग नहीं कर सकते क्योंकि आलंबन में सोचने का अवसर नहीं रहता हैं। जबकि शरण का सोच समझकर स्वीकार किया जाता है। आलंबन में कोई प्राथमिक संबंध नहीं होता हैं। बड़े छोटे की परवाह नहीं होती हैं आदर
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