________________
दो मुखवाले दिखाई देते थे। इसलिए वे द्विमुखराय के नाम से प्रसिद्ध हो गए। एकबार इन्द्रमहोत्सव का आयोजन किया गया था। उसमें एक इन्द्रध्वज को स्थापित किया गया था। विविध प्रकार के मणि, माणिक्य, रत्न और विविध वस्त्रो से उसे सजाया गया था। आठ दिन के उत्सव के बाद लोगों ने लौटते हुए वस्त्र, रत्न, आभुषण आदि को अपने घर ले गए। अब वहाँ सिर्फ एक ढूंठा बचा था। दूसरे दिन राजाने वहाँ जाकर लूंठे को देखा जिससे बच्चे
खेल रहे थे। इन्द्रध्वज की दुर्दशा देखकर राजा की राज्य संपदापर से आसक्ति समाप्त हो गई। राज्य आदि सर्वस्व त्यागकर मुनिदीक्षा ग्रहण कर उन्होंने मोक्षमार्ग प्राप्त किया।
तीसरे प्रत्येक बुद्ध नगगति नामक सिंहरथ राजा हुए। एक बार कार्तिक पूर्णिमा के दिन नगर के बाहर एक ऐसा आम्रवृक्ष देखा जो नए पत्तो और मंजरियों से सुशोभित एवं गोलाकार दिखाई दे रहा था। वृक्ष का सौंदर्य और मांगल्य देखकर राजाने उसकी मंजरी तोड ली। चतुर्विध सैन्य के साथ रहे राजा के द्वारा किया गया उपचार देखकर सभी ने वैसा किया। वन परिभ्रमण कर वापस लौटते समय वृक्ष की जगह ढूंठा देखकर राजाने मंत्री से कारण पूछा। मंत्री ने कहा राजन! यह वही आम्रवृक्ष हैं आपके द्वारा मंजरी तोड लेनेपर आपके साथ रहे समुदाय ने भी वैसा किया। श्रीसंपन्न आम्रवृक्ष को श्रीरहित देखकर राजा विरक्त हो गए और निर्याणमार्ग को प्राप्त हो गए।
सिद्धत्त्व को प्राप्त करे उसे सिद्धिमार्ग कहते हैं। मुक्तदशा प्राप्त करानेवाले मार्ग को मुक्तिमार्ग कहते हैं। निर्याणमार्ग और निर्वाणमार्ग में कोई अंतर नही होते हुए भी बहुत बड़ा अंतर हैं। जहाँ से निकला जाता हैं उस मार्ग को निर्याणमार्ग कहते हैं। जहाँ पहुंचा जाता हैं उसे निर्वाणमार्ग कहते हैं। ट्रेन या प्लेन की सफर करते हुए आपने यान सेवा शब्द पढा होगा। रेलयान, जलयान, वायुयान आदि वे सेवाए जो किसी मंजिलतक पहुंचाने में सफल रहता हैं यहाँ पहुंचानेवाले साधन को यान कहा गया हैं। निर्याण अर्थात् निर्वाणतक पहुंचाने का साधन। अंतिममार्ग को अवितहमविसंधि सव्वदुक्ख पहीणमग्गं कहते हैं। परमशांति के इस मार्ग को यहाँ मिथ्यात्त्वरहित, यथार्थ, संदेहरहित, सदाशाश्वत और सर्वदुःखों को पूर्णरुपसेक्षय करनेवाला मार्ग कहा हैं।
मार्ग से संबंधित चार शब्द साधनामार्ग की तीन प्रक्रिया से संबंध रखता हैं - १.मार्गाभिमुख २.मार्गपतित ३. मार्गांनुसारी ४. मार्गगामी
आत्मविकास करता हुआ जीव मार्ग को देखता हैं। मार्ग और साधक आमने सामने हो जाते हैं। मार्ग का दिखाई देना भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। मार्ग के अभिमुख जीवन को अपुनर्बंधक कहा जाता हैं। यह जीव अब मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बंध नहीं करता है। इसलिए उसे अपुनबंधक कहा जाता है। अपुनबंधक अर्थात् अ = नहीं, पुनर् = पुन:(वापस), बंधक = बंधन करनेवाला। मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति को अब पुनः नहीं बांधने के कारण उसे अपुनर्बंधक कहा जाता है। मार्गाभिमुख होनेवाले साधक में तीन लक्षण दिखाई देते हैं -
१. आजसे पूर्व वह अत्यंत तीव्र रस से पाप करता था। वह अतिशय रस और अतिशय तीव्रता से पाप नहीं करता। पापतो करता है पर उसमें तीव्रता नहीं रहती है।
149