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बच्चो का अस्तित्त्व आँखों का प्रतिरुप हैं तभी तो माँ पुत्र को लक्ष में रखकर कहती है- मेरे लिए तो दांयी बांयी दोनों आँखे अर्थात् दोनों पुत्र समान हैं। दोनों के बीच में मैं कुछ फरक नहीं कर सकती । इस कथन का अभिप्राय यह हैं कि माँ को दोनों पुत्रपर समान प्यार है।
आँखे तो चउरिन्द्रिय में भी मिली थी परंतु संज्ञी पंचेन्द्रिय के हमारे इस अवतरण में परमतत्त्व हमें जो चक्षुदान करते हैं वह अद्भुत दान हैं। जगत् देखने के लिए नजर देते हैं। आँखें हमारी और नजर भगवान की यह कॉम्बिनेशन यदि चाहिए तो आँखें बंद कर भगवान को देखना होगा। क्योंकि आँख खोलकर देखते हैं वह संसार हैं और आँखे बंद कर दिखते हैं वे भगवान हैं। हमारी आँखें बंद होते ही उनकी वात्सल्यभरी आँखे हमारी ओर हो जाती हैं। वे हमारी ओर देखते ही रहते हैं। देखते देखते हमारे जन्मजन्मांतर उनकी नजरों में चढ जाते हैं। उनकी नजर पडते ही हमारे जन्मजन्मांतरों के अनेक भव खट खट कट जाते हैं । जगत् और जगन्नाथ की नजरों में यही अंतर हैं कि जगत् प्रेम से देखता हैं तो संसार बढता है और परमतत्त्व प्रेम से देखते हैं तो संसार कट जाता है।
देखने की हमारी परिभाषा में हमनें आँख खोलकर देखना ही सुना हैं । आँख बंद कर भी देखा जाता है। ऐसी परिभाषा हमने कभी नहीं सुनी हैं। भले ही भाषा न सुनी हो परिभाषा न जानी हो परंतु अध्यात्मशास्त्र का ऐसा अनुभव हैं कि आँख बंद करते हैं तो दिखता हैं । इस देखने की प्रक्रिया को दर्शन कहते हैं। दर्शन बहुत बडी उपलब्धि हैं। इसका स्थान ज्ञान के साथ हैं। इसका प्रारंभ प्रणाम के साथ हैं। जिन को देखकर हमारा मस्तक झुक जाता हैं उन्हें पूज्य कहते हैं। जिनके चरणों में मस्तक झुक जानेपर आत्मा का अर्पण हो जाता है उसे पूजन कहते हैं। जगत् को देखने के लिए आँखें खोलते हैं और परमतत्त्व को देखने के लिए आँखें बंद करते हैं। कभी सोचा आपने कि ऐसा हम क्यों करते हैं? एक कवि ने अपनी कल्पना से कहा हैं, कभी कभी भगवान हमें कहते हैं कि मेरे आँगन
आया, मेरे सामने आया, मुझे देखने के लिए आया तो फिर आँखें क्यों बंद कर दी । तू कब से मुझे बुला रहा था और अब जब मैं पास आया, तेरे सामने आया तो तुने आँखें क्यों बंद करी ? एक भक्तकवि ने दो पंक्ति में प्रतिउत्तर देते हुए कहा हैं -
एम ना समझो के तमारुं रुप झीरवातु नथी । पण तमारुं हेत मारी आँखमां समातुं नथी ।
भक्त भगवान को कहता हैं कि आप आओ और आँखें बंद हो जाती हैं ऐसा नहीं हैं परंतु प्रभु महत्त्वपूर्ण बात तो यह हैं कि आँख बंद होती हैं तभी आप आते हो। आपकी शर्त ही ऐसी हैं कि आँख खोलते हैं तो आप छिप जाते हो और आँख बंद करते हैं तो प्रगट हो जाते हो। फिर भी आप पूछते हो कि आँखें बंद क्यों करते हो? तो सुनिए
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- आपका रुप अपार हैं फिर भी मैं देखने में समर्थ हूँ परंतु आपका प्रेम अपरंपार हैं। इतना अपरंपार प्रेम मेरे इन छोटे छोटे नयनों में समा नहीं पाता हैं इसलिए आँखें बंद हो जाती हैं। आपका रुप और आपका प्रेम आँखों से लेकर अंत:करण में समा लेता हूँ। आँखें खोलकर लेना और आँख बंदकर समा लेने की प्रक्रिया को दर्शन कहते हैं।
आप लोग कईबार दर्शनयात्रा में गए होंगे। जब वापस लौटते हैं हम पूछते हैं यात्रा कैसी रही ? उत्तर में कहाँ कैसी व्यवस्था थी, नास्ते की, भोजन की, विश्राम की वगेरह का लंबा लीस्ट आता हैं । दर्शन कैसे हुए संत
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