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नमोत्थुणं मग्गदयाणं
चित्त का स्वस्थ रहना अभय हैं। चित्त की वक्रता रहित दृष्टि चक्षु हैं। चित्त का वक्रता रहित गमन मार्ग हैं।
स्वस्थता पूर्वक सम्यकदृष्टि के साथ मार्गपर चलने की विधि जो अर्पण करते हैं उन्हें मार्ग दाता कहते हैं। जहाँ अप्रतिबद्धरुप से आगे बढा जाता हैं उसे मार्ग कहते हैं। जो मंजिल तक सुरक्षा करने का सामर्थ्य रखता हैं उसे मार्ग रक्षक कहते हैं।
जो भ्रमण और परिभ्रमण को मिटाने का मार्ग दिखाता हैं उसे मार्ग दाता कहते हैं।
कुछ लोग मार्गपर चलते हैं, मार्ग देखते हैं और मार्ग को जानते भी हैं। कुछ लोग मार्गपर चलते हैं, मार्ग देखते हैं पर मार्ग को जानते नहीं हैं।
कुछ लोग मार्ग देखते नहीं, जानते भी नहीं पर बताए मार्गपर चले ही जाते हैं। कुछ लोग जहाँ चलते हैं वहाँ मार्ग बन जाता हैं।
मार्ग के दो प्रकार हैं - लौकिक मार्ग और लोकोत्तर मार्ग । लौकिक मार्ग को प्रायः हम रास्ता कहते हैं।
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सामान्यत: रास्ता और मार्ग में कुछ अंतर नहीं समझा जाता हैं। अधिकांश लोग दोनों को एक ही समझने की भ्रांति करते हैं। जैन परिभाषा में इर्यासमिती के बिना जहाँ चलते हैं वह रास्ता हैं और इर्यासमिती पूर्वक जहाँ चलते हैं वह मार्ग हैं। सामाजिक स्तरपर रास्ता, और मार्ग शब्द गंभीर अर्थ प्रस्तुत करते हैं। कोई रास्तेपर आ गया ऐसा कहने से उस व्यक्ति की स्थिति को कमजोर माना जाता हैं। कोई मार्गपर आ गया ऐसा कहने से उस व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर विकासमय माना जाता हैं। रास्ता तो एक मीलस्टोन का पत्थर भी बता सकता हैं परंतु मार्ग महापुरुष ही बताते हैं। भगवान महावीर की आत्मा ने नयसार के भव में जंगल में ग्रामानुग्राम विहार करते हुए मुनियों को रास्ता बताया था। मुनियों ने ऋण अदा करते हुए या आभार मानते हुए जो भी समझो नयसार को मोक्ष का मार्ग बताया था। रास्तेपर चलकर मंजिल या गाँव पहुंच सकते हैं। मार्गपर चलकर मोक्ष पहुंच सकते हैं। मुनियों के इसी मार्गदर्शन ने नयसार को महावीर बनने का अवसर प्रदान किया।
मार्ग का अनुसरण करनेवाले को मार्गांनुसारी कहते हैं । इसी आधारपर मार्गांनुसारी नाम की अनुष्ठान विधि की प्रक्रिया प्रचलित हैं । पुद्गल रस में रुचि होने से चित्त अस्वस्थ और विह्वल रहता हैं। परमात्मा हमें अभय देकर पुद्गलरस की रुचि के आवेग से मुक्त करते हैं। चक्षुदानकर धर्मदृष्टि । अंर्तचक्षु खोलकर मोक्षमार्गपर लाते हैं। मार्ग समझाते हैं, मार्ग का स्वरुप और मार्गपर चलने की विधि देते हैं। इसी कारण इन्हें मार्गदाता कहते हैं। यह मार्ग सम और सानुबंध होने से हमारी उत्तरोत्तर धारा स्थिर और अनुबंध वाली होती हैं। उत्तराधयन सूत्र में मार्ग प्ररूपणा को समझाते हुए इसे महामार्ग कहकर दृढ निश्चय के साथ सम्हलकर चलने को कहा हैं। वर्तमान काल में जिनेश्वर नहीं दिखाई देते हैं परंतु उनका प्रदत्तमार्ग उपलब्ध हैं। यद्यपि मार्गदर्शको की अधिकता के कारण उलझन हो सकती हैं परंतु भावविशुद्धि से मार्ग प्रशस्त हो सकता हैं।
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