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कितना अद्भुत कथन हैं कि परमात्मा का चित्तनिपात होता हैं तब शिष्य पंथणिज्झाति बनता हैं अर्थात् परमात्मा के पंथ को वह देख पाता है। संसार में आँखे बंद कर चलते ही रहे। पर अब तो आँखे खोलकर मार्गपर चलना हैं। चंडकौशिक दृष्टिविष सर्प था। उसकी आँखों में जहर भरा था। परमात्मा महावीर अमृतमय दृष्टिपुरुष थे। सर्प ने अपनी विषभरी दृष्टि भगवान महावीर की ओर फेंकी। भगवान महावीरपर उसका कोई असर नहीं हुआ परंतु आसपास की हरीयाली पेड पौधे पत्ते सूख गए। इसे देखकर भगवान महावीर ने अपनी वात्सल्यसभर दृष्टि से अमृत सिंचा और पूरे उपवन को पुन: हराभरा कर दिया। इस दृष्टि का प्रभाव चंडकौशिक पर भी हुआ परंतु उसका उसपर कोई असर नहीं हुआ। वह बौखलाया जरुर क्योंकि इससे पूर्व उसने ऐसा कुछ कभी देखा नहीं था। देखा भी कहाँ से हो क्योंकि वह प्रभाव तो सिर्फ परमात्मा का ही होता है। अपने को पराजित समझकर उसने क्या किया इसकी चर्चा हम यहाँ नहीं करेंगे। अभी तो हमें परमात्मा की दृष्टि समझनी है। माता जैसे बच्चे को दूध पिलाती है उसतरह प्रभु ने सृष्टि को वात्सल्य से भर दिया और सर्प को प्रेम से नहाला दिया।
परमात्मा की दृष्टि से हमारा मार्ग खुला होता हैं। इसलिए चक्खुदयाणं के बाद मग्गदयाणं आता हैं। अभिनंदन स्वामी के स्तवन में आनंदघनजी ने कहा हैं, तुझ दरिसन जगनाथ धिठाई करी मार्ग संचर्यो धिठाई करके बिना प्रभु की दृष्टि पाए जो चलने लगता है वह घृष्टता है। परमात्मा पहले चक्खुदयाणं बनकर मार्ग देखने की दृष्टि देते हैं बाद में मग्गदयाणं बनकर मार्ग प्रस्तुत करते हैं। अंतर्चक्षु देकर परमात्मा कहते हैं, अंतर्चक्षु के द्वारा तुम्हें स्वयं को देखना हैं। परमात्मा के ध्यान की चर्चा करते हुए शास्त्रकार कहते हैं, से सयं पवेसिया झाइ... उन्होंने स्वयं में प्रवेश किया और स्वयं का ही ध्यान किया। निरालंबन ध्यान की इस प्रक्रिया में न कोई विधि न कोई विधान न कोई साधन और न कोई साधना बस स्वयं ने स्वयं को देखना हैं स्वयं को ही जानना हैं। इसे षटकारक में इसतरह कहा हैं -
स्व ने स्व को स्व के द्वारा स्व के लिए स्व से स्व का स्व में आना ध्यान है।
हम सबकुछ देखते हैं परंतु स्वयं को ही नहीं देखते हैं। स्वयं याने मैं आत्मा हूँ ऐसा एहसास करना। हमारा स्व देहार्पित हो जाने से आत्मीय नहीं रह पाया। आप उपाश्रय मंदिर या दुकान में बैठे हैं तो उपाश्रय नहीं हो जाते हो। घर में बैठते हो तो घर के होते हो घर नहीं हो जाते हो। गाडी में बैठते हो तो मैं गाडी नहीं हूँ इसका पूरा ध्यान आपको हैं मैं गाडी में हूँ पर मैं स्वयं गाडी नहीं हूँ। ऐसा बोध आपको हैं तो शरीर में मैं हूँ ऐसा क्यों भूलते हो ? मैं देह हूँ ऐसा क्यों मानते हो?
___ आनंदघन जी जगह जगह इस बात का वास्तव्य प्रगट करते हैं। तेरहवें स्तवन में कहते हैं - विमलजिन दिठालोयण आज। भगवाने के निर्मल लोचन देखकर मारा वांछित सिज्या काज। मेरे काम सिद्ध हो गए। मैंने स्वयं को देख लिया। यह दृष्टिदान प्रभु कैसे करते हैं इसे पंद्रहवें भगवान में कहते हैं प्रवचन अंजन जो सद्गरु करे देखे परम निधान, हृदय नयन निहाळे जगधणी। देखो तो सही शब्दों को मोती की तरह सजा दिया। जगत् धणी क्या देखते हैं हृदय नयन निहाळे हमारे भीतर के हृदय नयन को देखते हैं। हमारे भीतर की भाषा को ओर कौन पढ सकता हैं ?
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