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नमोत्थुणं - अभयदयाणं
जो स्वयं भयमुक्त होकर अन्य को भयमुक्त करते हैं वे भगवान हैं। जो अभयदया के साथ होते हुए भी भयभीत होते हैं वे इन्सान हैं। जो स्वयं भयमुक्त नहीं हैं फिर भी अन्य को भयभीत करते हैं वे शैतान हैं। कर्म सत्ता में भयमोहनीय कर्म के उदय से आत्मा में उद्वेगरुप परिणाम विशेष से जीव
भयभीत होते हैं।
अभय हमारा स्वभाव है । स्वभाव में नहीं रहने से हम भयभीत होते हैं। अभयदयाणं हमें अभय का दान देते हैं अत: हमें हमारे स्वरुप का दान करते हैं। भय तो संसार में सब देते हैं लेकिन भय से मुक्त तो अभयदयाणं ही कर हैं। परिस्थिति से अनभिज्ञ बच्चा परिणाम विशेष से भयभीत होकर भगता हुआ माँ की गोदी में छीप जाता हैं। माता भी बच्चे के सिर पर हाथ फेरती हैं पीठपर प्रेम से हाथ फेरती हैं और उसे भयमुक्त करती है । आलोकभय परलोकभय, आदानभय, अकस्मातभय, आजीविकाभय, अपयशभय और मृत्यु भय आदि भयों से भयभीत हम भी आज अभयदात्री, भयहर्त्री, मोक्षविधात्र अरिहंत माता की गोद में स्वयं को समर्पित कर सदा सर्वदा के लिए भयमुक्त हो जाते हैं। हमारे भयरहित स्वरुप को प्रगट कर शास्वत अभय को प्राप्त कर लेते हैं।
अरे ! हरीणी जैसी भयभीत प्राणी भी स्वयं के बालक की सुरक्षा के लिए सिंह का मुकाबला करने का सामर्थ्य रखती हैं। सोऽहं तथापि वाली भक्तामर की गाथा इस बात की पृष्टि करती हैं। अरिहंत तो जगत् जननी हैं वे क्यों नहीं हमारी सुरक्षा करेंगे। केवल हमें उन राखणहार के चरणों में अपना मस्तक रखना चाहिए। सर्वस्व अर्पण का यह अंतिम दाव हैं। कर्म के सामने लड लेने का यह अपूर्व अवसर हैं । नमोत्थुणं प्रभु की गोद हैं। छलांग लगाकर प्रभु की गोद में खो जाओ। अभयदयाणं प्रभु का पल्ला हैं। पल्ले में छुप जाओ। चुप-चुप हो जाओ। ना कोई भय ना कोई भीती । बस मात्र प्रीती, स्मृति, मुक्ति ।
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जीवको भयमुक्त करने का दान अभयदान हैं। इस अभय का दान जो करते हैं वे अभयदाता । लोक व्यवहार में पाय: अभयदान को जीवदान समझा जाता हैं परंतु वास्तव में अभयदान अर्थात् जीव को भयमुक्त होने का दान। जीव अनादिकाल से भयभीत होता रहा हैं फिर भी जीवत्त्व का कभी नाश नहीं होता हैं । जीव की सोची हुई पर्याय को पहुंची हुई पीडा से यह जीव भयभीत होता रहा हैं। मोहनीय कर्म के कषाय और नोकषाय दो प्रकार हैं। क्रोधमान माया, आदि कषाय हैं। हास्य, भय आदि नोकषाय हैं। कषाय को उत्तेजित करने में जो कारणभूत हैं वह नोकषाय हैं। करेमि भंते कहते ही पहले यह भय दूर होता हैं और हमारे द्वारा अन्य जीवों को होनेवाले भय भी समाप्त हो जाते हैं।
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इसके पूर्व लोगपज्जोयगराणं का पद हैं। लोक में प्रद्योत होता हैं तो सर्व प्रथम अंधकार मिटता हैं। भय और अंधकार दोनों साथ रहते हैं। सातों प्रकार के भय चार प्रकार के व्यवहार से समझाए जाते हैं -
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