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रक्खणट्ठयाए दयट्ठयाए... अप्पहियट्ट्याए । जगत् के सर्व जीवों के रक्षण के लिए, करुणा के लिए और स्वयं के आत्महित के लिए हम दीक्षा लेते हैं। ऐसी प्रतिज्ञा के साथ ही हमने सयंम में प्रवेश किया हैं। राजा ने पूछा, ऐसी प्रतिज्ञा आपको कौन देता हैं? मुनि ने उत्तर देते हुए कहा, भगवत्सत्ता ने हमें शासन में स्थान दिया और अनुशासन की आन दी, आज्ञा दी।
राजा ने कहा, आपकी अटपटी भाषा मुझे समझ में नहीं आती। मुझे तो अभय दो। आपके पास अभय की याचना करता हूँ । मुझे और कुछ नहीं चाहिए ।
राजन् ! अभय की तुम्हे याचना नहीं करने पडेगी? अभय देना हमारा धर्म हैं। पर हम उन्हें अभय देते हैं जो अन्य को अभय देते हैं। तुरंत ही राजन् ने कहा, चलो, मैं आपके मृगों को अभय देता हूँ । आपके इन मृगोंपर आप निशान लगा दीजिए। ये कहीं भी होंगे हम इनका शिकार नहीं करेंगे।
राजन् ! एक दो नहीं यहाँ से चिन्हित, पालित, किसी भी जीव का वध तुम्हें नहीं करना हैं ।
हा प्रभु ! आपकी बात मानने के लिए तैयार हूँ परंतु आपको उन सभी जीवोंपर निशान लगाना अत्यंत आवश्यक हैं।
पार्थ ! संसार में जितने जीव हैं वे सब मेरे हैं। मैं उनका हूँ। मैं उनको उतना ही प्यार करता हूँ जितना माँ उसके बच्चे से करती हैं ।
प्रभु ! तो क्या इस वन-उपवन के सभी पशु आपके हैं?
हा वत्स ! सब मेरे हैं। मैं सबको प्रेम करता हूँ, सब मुझसे प्रेम करते हैं ।
वार्तालाप का असर वातावरणपर और वातावरण का प्रभाव राजा के अंत:करण पर हो रहा था । कांपिल्यपुर नगर के केसर उद्यान में करुणा का अजस्र स्रोत बहने लगा। राजा अपने शस्त्र फेंक कर मुनि के चरणों में गिर पडे । समर्पण और भावना का अभिषेक कर राजा पवित्र हो गए। सैन्य आदि को अंतिम विदाय दी। स्वजनों
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से अंतिम विदाय ली और प्रेम की पावन प्रयोगशाला में प्रवेश पाया । सम्राट में प्रगट हुआ शिष्यत्त्व। शिष्यत्त्व जब स्वयं में प्रगट हो जाता हैं तो गुरु में भी गुरुत्त्व प्रगट हो जाता हैं। सृष्टि में सिर्फ बच्चे का ही जन्म नहीं होता हैं परंतु जब बच्चे का जन्म होता हैं तब जन्मदात्री स्त्री में माताका जन्म होता हैं। माता में मातृत्त्व स्वयं प्रगट हो जाता हैं। तभी रक्त का दूध में परिवर्तन होता हैं।
शिष्य का मस्तक झुका हुआ हैं। गुरु का हाथ शिष्य के मस्तक पर हैं। मृग समुदाय इस दृश्य को भोले भावों के साथ देख रहा हैं। जैसे आज इस उपवन में भगवान स्वयं अभयदयाणं स्वरुप में प्रगट हो गए। समालो इन परमात्मा को अपने अंत:करण में और अपने आत्मा को पवित्र करो। राजा के मस्तकपर हाथ रखकर मुनि ने कहा, मैं तुम्हें शास्वत अभय देता हूँ। वत्स ! लेकिन तुम किस तरह जीवों को अभय दोगे ?
1 प्रभु ! मैं तो इन बातों को समझता ही नहीं। आप ही कृपा करके मुझे समझाइए।
राजन् ! शाश्वत अभय अर्थात् हमेशा अभय देते रहना। दूसरा अभय जो मर्यादा में दिया जाता हैं उसे सामायिक व्रत कहते हैं। सामायिक व्रत में मर्यादा होती हैं। आपको जितने समयतक अभय व्रत की प्रतिपालना करनी होती हैं उतने समय का सामायिक व्रत आप ले सकते हैं। कम से कम एक अंतर्मुहूर्त होता है। एक अंतर्मुहूर्त
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