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लिए भयभीत होना यह सब अब मेरे से सहन नहीं हो पाता हैं। .. खैर हमें तो यह सोचना हैं क्या मुनिलोग जनावर पालते है? और यदि पालते ही हैं तो महिलाएं दोपहर को बाहर जाना हो तब बच्चों को उपाश्रय में हमारे पास आराम से छोड सकती हैं। थोडा नास्ता वास्ता लेकर आएंगे,
खेलेंगे खाएंगे और सोऐंगे। कलयुग की ऐसी जीवनशैली को व्यवस्थित समजने के लिए उत्तराध्ययन सूत्र की यह कथाअभय का पाठ सिखाने के लिए हमें कांपिल्य नगर के केसर उद्यान की कैवल्य की पाठशाला में ले जाती हैं।
मुनि ने राजा से कहा हाँ हिरण मेरा हैं । बोल तुझे क्या कहना हैं?
राजा ने कहा, मुनि ! आज आपको मुझे आपके तपोवन की मर्यादा बतानी हैं। आपके आश्रम की जितनी सीमा बताऐंगे उतनी क्षेत्र मर्यादा में मैं कभी शिकार नहीं करूंगा। आपकी बताई गयी मर्यादा में कोई भी पशु दौडते होंगे, खेलते होंगे, चारा चरते होंगे मैं उन्हें कुछ नहीं करूंगा। सीमा मर्यादा से बाहर आए हुए पशुका मैं शिकार कर सकता हूँ। बताइए आपके उपवन की तपोवन की मर्यादा क्या हैं? आपने आश्रम के लिए या इन पशुओं के विचरण के लिए मुझसे कोई आज्ञा नहीं ली है। ___मुनि ने कहा, राजन् ! आप शहर में रहते हो। हम जब शहर में आते हैं तो आपसे आज्ञा मांगते हैं। जंगल में शक्रंद्र महाराज की आज्ञा, शासन में जिनाज्ञा और जीवन में गुरु की आज्ञा हमारे लिए आचरणीय होती हैं।
राजन् ने कहा, अरे यह फिर नये कौनसे राजा का चक्कर हैं। जिसकी आज्ञा में आप रहते हो। मुझे लगता हैं आपको भी किसी अन्य राजा के आज्ञा की बात समझ में नहीं आयी होगी।
हम जब दीक्षा लेते हैं घर छोडते हैं उसके बाद किसी भी शहर में, किसी भी मकान या उपाश्रय में, किसी भी घर या उद्यान में कहीं भी ठहरते हैं तब आप श्रावकों की आज्ञा लेते हैं। विहार करते हुए मार्ग में विश्राम करते हैं जहाँ किसी की भी जगह न हो ऐसे स्थानों में हम धरती के धणी श्री शक्रेन्द्र महाराज की आज्ञा ऐसा कहकर विश्राम करते हैं। वापस विहार करते हुए आज्ञा वापस लौटाते हैं और आगे बढते हैं। आप तो बहुत समझदार हैं समझ गए होंगे परंतु बिचारे राजन यह सब कैसे समझ सके होंगे ? राजन होकर ऐसा नहीं समझा ऐसा कहना भी ठीक नहीं लगता। उन्होंने कहा जो भी हो जिसका भी हो आप आपकी मर्यादा को तो बताओगेन?
राजन् ! इन महाराज की आज्ञा इतने विशाल क्षेत्र की हैं नजर में समाती नहीं हैं और किसी नापदंड से नापी नहीं जाती हैं। ___मुनिश्री ! मुझे न तो तुम्हारी मान मर्यादा समझ में आती हैं न तो तुम्हारी धर्मभावना समझ में आती हैं और न तो तुम्हारे इन महाराज की बात समझ में आती हैं। मुझे तो केवल आपकी मालिकी में इस जंगल के कितने जीव हैं इतना ही बता दो ताकी मैं उनका शिकार नहीं करूंगा।
राजन् ! सृष्टि के सभी जीवों का मैं मालिक हूँ। जब मैं ने दीक्षा ली तब प्रतिज्ञा की थी कि जगत् के सभी जीवों को मैं प्रेम करूंगा। माँ जैसे बच्चे को प्यार करती हैं उसीतरह मैं सभी जीवों का जतन करूंगा। षड्जीवनिकाय हितं साधुत्त्वं। छहों काय के जीवों के हित का चिंतन जो करते हैं वे साधु हैं। सव्व जगजीव
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