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इस अद्भुत दृश्य को देखकर कांपिल्यपुर नगर का स्वामी राजा गर्दभाली आश्चार्यान्वित भी हुआ और भयभीत भी हुआ। वहाँ साक्षात अभय प्रकट था फिर भी राजा भय से कांप रहा था। वह हिम्मत करके मुनि चरणों में प्रणाम करता हैं। प्रणाम अनेक कारणों से होता हैं आदर, प्रेम, भय, लालच आदि अनेक कारणों से संत भारत के पूज्य और नमस्कृत्य रहे हैं। ऐसे ही कुछ भावों से भयभीत, भ्रमित, स्वपाप से पिडीत तप तेज से सर्वमाश के विचारों से संत्रस्त राजा ने मुनि चरणों में मस्तक रखकर कहा,
भयवं ! एत्थ मे खमे - भगवन मुझे क्षमा करें। राजा के ऐसे अनुनय विनय से युक्त वचनों को सुनकर मुनि में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। मुनि की अविचल, निश्चल, निर्मल ध्यानधारा की अखंडता देखकर राजा को दहेशत हुई। स्त्रीहठ और बालहठ की तरह योगीहठ भी खतरनाक होती हैं। ऐसे तो ये लोग मौन ध्यान करते हैं, तप जप करते हैं परंतु आवेश में आ जावे तो अपने तपोबल से सारी नगरी को जलाकर भस्म कर सकते हैं। जगत् के साथ प्रेम की गम्मत खेलते हुए ये महामुनि जगत् को नहीं परंतु जगत् के विकार, विकल्प और विवादों को जला देते हैं। कर्म और कषायों को भस्म करनेवाले महामुनि को पहचानने के लिए आँखे चाहिए। संयतिराजा मुनि के गुणधर्म से अपरिचीत थे। वे सिर्फ इतना ही जानते थे कि प्रत्येक राज्यों के बाहर वन, उपवन और तपोवन के कुछ निश्चित विभागों में ऐसे साधुलोग रहते हैं ऐसे वन, उपवन और तपोवन की एक सीमा होती है। जितनी क्षेत्र मर्यादा में ये लोग रहते हैं उस हद में रहे हुए पशु प्राणी भी उनके गिने जाते हैं। वे ऐसा भी मानते थे उनकी मर्यादा में जाकर हमें शिकार नहीं करना चाहिए। मैंने इस मर्यादा का उल्लंघन किया है अत: मुनि मुझपर कोपायमान होंगे और यदि वास्तव में वे कोपायमान होंगे तो मेरे समेत पूरे नगर को जलाकर भस्म कर देंगे। कुध्दे तेएण अणगारे, डहेज्ज णरकोडिओ। कोपित होकर जलाकर भस्म कर देंगे ऐसा सोचकर उसने निर्णय किया मैं मुनि के साथ बात करु और उनकी क्षेत्र मर्यादा को जानलूं । साथ ही इन मृगों में से उनके कौन कौन से हैं यह भी समझलूं। ऐसे कुछ विकल्पो के साथ राजा मौन में आसित ध्यानाश्रित मुनि के पास जाकर बिनती की मुद्रा में हाथ जोडकर कहते हैं - भगवं! वाहराहि मे। आप मुझसे बात करें। संवाद करें। मेरे अपराध के लिए मुझसे शिकायत करे। मुझे क्षमा करें।
___राजा की पीडादायक त्रस्तदशा देखकर मुनिने अपने मौन ध्यान खोला। वात्सल्य भरी दृष्टि से हिरण और राजा को एक साथ देखे। मृग घायल था फिर भी मुस्कुराकर मुनि की ओर देख रहा था। मृग हसता था राजा रोता था। मृग भयमुक्त था राजा भयभीत था। मृग अपने तेजस्वी नयनों से मुनि का आभार मान रहे थे। राजा अपने करुणा भरे नेत्रों से माफी मांग रहे थे। मुनि ने अपनी करुणा भरी नजरों से ही उन्हें भयमुक्त करते हुए बात करने की आज्ञा दी। मुनि और राजा के बीच हुए वार्तालाप की संवादिता अद्भुत और रोचक हैं।
भगवं! एत्थ मे खमे - भगवन् ! मुझे क्षमा करे। __मुनि ने हसते हुए कहा, अभवो पत्थिवा ! तुझं, अभयदाया भवाहि य! - हे पार्थिव तुझे अभय हैं, किंतु तू भी अभय दाता बन।
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