________________
वातावरण में परिवर्तन आ गया। सृष्टि में अचानक अंधेरा छा गया। एक और परमात्मा की दिव्यदेशना का आनंद ओर दूसरी ओर कालांतर हो जाने का पश्चाताप करते करते साध्वी श्री स्वस्थान पधारने लगे।
चले हम भी सब साध्वी मृगावतीजी के स्वस्थान पहुंचने से पहले पहुंच जाए। साध्वी जी के स्वस्थान पहुंचने पर दोनों के बीच में क्या होता हैं ये भी तो देखे। ऐसी बातों में हमें रस भी तो है। देखे तो सही, इनके गुरुणी जी जगकर प्रतीक्षा कर रहे हैं, स्वयं की साधना कर रहे हैं या अच्छी नींद में सो रहे हैं? हम सब अपनी कल्पना से उन प्रश्नों का उत्तर ढूंढते हुए साध्वी मृगावती जी के स्थान में प्रवेश कर रहे हैं। रात के करीब १२ बज रहे हैं। देखिए साध्वी चंदना जी के अतिरिक्त समस्त साध्वी समुदाय अपने संथारा (आसन) पर आराम से सोये हैं। गुरुणी श्री चंदना जी बैचेन हैं। शिष्य बाहर हो तो गुरु को चैन कहाँ? न सो सकते थे न जग सकते थे। वैसे गुरु भी उनको ही तो कहते हैं, जो स्वयं जगते हैं और शिष्य को भी जगाते हैं। यहीं पर माँ और गुरु में अंतर होता हैं। माँ गुरु बन सकती हैं तो गुरु भी माँ की तरह शिष्य का पूरा ध्यान रखते हैं पर कुछ ऐसी बाते हैं जहाँ इन दोनों में बहुत अंतर है। माँ स्वयं सोती हैं, बच्चे को सुलाने का प्रयत्न करती हैं, पीठ थपथपाती हैं, झुला झुलाती हैं, गीत गाती हैं, सिरपर हाथ फेरती हैं, किसको आवाज नहीं करने देती हैं। यदि नींद पूरी किए बिना कदाचित बच्चा उठ गया तो कहती हैं आज मेरा बच्चा कच्ची नींद में से उठ गया हैं। यह तो हैं गुरु का दरबार। यहाँ तो उठना ही नहीं, आवश्यक हो तो शरीर को थोडा विश्राम देना होता हैं। उसमें नींद का कच्चा पक्का क्या होता है? यहाँ तो जगो और जगाओ।
महाआर्या चंदनाजी भी आज के जमाने के गुरु तो नहीं थे कि मजे से सो जाए........ क्या पता कहाँ गई हैं? क्या कर रही हैं? कब आएगी..? सुबह उठते ही गुरु के पास जाकर कहूंगी कि मृगा रात को कहाँ जाती हैं? मुझे कहती नहीं हैं। आपको जो दंड देना हैं वह दंड अपनी शिष्या को दीजिए। नहीं ऐसा नहीं था। साध्वी जी जाग्रत थे। जानते थे कि आर्या मृगावती प्रज्ञावती हैं। समवसरण के सिवा कहीं नहीं जा सकती परंतु.... परंतु अब इतनी रात तक वहाँ कैसे रह सकती हैं?
अब मृगावतीजी पहुंचे हैं उपाश्रय में। धीमे धीमे कदम भरते हुए गुरणीतक पहुंचे किसी भी साध्वी जी के विश्राम या स्वाध्याय में बाधा न पहुंचे उसतरह गुरु के आसन के पास आए। उपाश्रय में पहुंचकर गुरु को सुनाई दे ऐसा बोलने का सूत्र बोलती हैं निसिहि निसिहि णमोखमासमणीणं मत्थेणं वंदामि। ऐसा बोलकर गुरुणी के चरणों में मस्तक रखकर कहती हैं, खमणिज्जो भे किलामो अप्पकिलंताणं कहकर पश्चाताप करती हैं। अब हम चुपचाप सुनते हैं इनका संवाद।
इतनी रात तक आप कहाँ थी? प्रभु के समवसरण में! क्यों? देशना चल रही थी उसमें रस था इसलिए! देशना से भी अधिक महत्त्वपूर्ण क्या होता हैं ?
123