________________
सही दिखाई तो देता हैं ऐसा समझकर हम खुश होते हैं। ज्ञानी पुरुष कहते हैं इतना यदि देखने का शौख हैं तो देखले सबकुछ स्वयं के सिवा। यदि एक जगह संतोष नहीं तो दूसरी जगह जा, यदि दूसरी जगह संतोष नहीं होता तो तीसरी जगह जा । यदि मुंबई से संतोष नहीं तो देवलाली जाओ। वहाँ भी संतोष ना हो दिल्ली कलकत्ता जाओ, टुरटिकिट कराओ भारत भ्रमण करो। विश्वास और संतोष न हो तो विदेश जाओ, विश्वभ्रमण करो। जितना तुम्हारा पॉकेट जोर करे उतना भ्रमण करो । ज्ञानी पुरुष कहते हैं, अनादि काल से संसार परिभ्रमण कर थके नहीं तब तक सबकुछ देखले। जब तू स्वयं को देखेगा तब तेरी दृष्टि बदल जाएगी । तुझे अपने भीतर परमतत्त्व के प्रकाश का एहसास होगा। बाहर अंधेरा दिखेगा। लोगपज्जोयगराणं परमतत्त्व को नमस्कार करना । वे कहेंगे तू जो देखता हैं वह तेरा ही रूप हैं । तू जिसे नमस्कार करता हैं वह तू ही हैं ।
भगवंताणं पद हमें कहता हैं तुझे कही जाने की आवश्यकता नहीं हैं। आँखे बंद कर भगवान स्वयं तेरे सामने प्रगट हो जाऐंगे। अब हमें चाहिए उन्हें देखने के लिए दृष्टि, उजास, उल्हास, आनंद आदि । वे तो सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं। गाढ अंधकार में भी वे हमें देख सकते हैं परंतु हम उन्हें नहीं देख सकते। उन्हें देखने के लिए ही कल हमने लोगपइवाणं का आयोजन किया था। दीया प्रज्ज्वलित करने की योजना बनाई थी परंतु इस योजना से काफी काम तो हुआ पर हम काफी थक गए। दीया चाहिए, बाती चाहिए, तेल या शुद्ध घी चाहिए। ऐसे कई शर्तों से मिलनेवाले उजाले की अपेक्षा इन्संस्ट और बेशर्त उजाला चाहिए। ऐसे उजाले की हम बात करते हैं तो मुनि मानतुंगाचार्य ने मुस्कुराते हुए कहा कि ऐसे उजाले के लिए तो लोक में एक परम विश्वस्त व्यवस्था हैं - सूर्यातिशायि महिमासि मुनीन्द्र लोके ।
मुनीन्द्र ! प्रकाश की महिमा की जब बात करते हैं तब तेरे प्रकाश के अस्तित्त्व का महिमा सूर्य से भी अधिक महिमावान होता है। तू सूर्य है, महासूर्य है, परमसूर्य है पर न तू कभी अस्त होता है न तेरी कोई शाम होती है। तू राहु से भी ग्रसित नहीं होता। न कभी बादलों से अवरुद्ध होता है। ऐसा तेरा अपूर्व महिमा है। उत्तराध्ययन में कहा हैं सो करिस्सइ उज्जोयं । वहीं करेगा उद्योत अर्थात् लोगस्स उज्जोयगरे।
सूर्योदय दो विभागों में विभक्त है - अरुणोदय और सूर्योदय। अरुणोदय अर्थात् सूर्योदय के पूर्व का समय। सूरज उगा हैं ऐसा नहीं लगता फिर भी उजाला हो जाता है उसका नाम है अरुणोदय। दूसरी भाषा में इसे प्हो फटना या प्रभात होना कहते है। सूर्योदय पूर्व की ये क्षणें बहुत मूल्यवान होती हैं। इस समय को अमरतबेला कह हैं। हमारी चेता नाडी इसी समय खुलती है। परमयोगी पुरुष इस समय में साधना कर अपनी विशिष्ट शुभकामनाओं का तरंगों के रुप में प्रसारण करते हैं।
विज्ञान भी इस बात की पृष्टि करता है ऐसा हम लोगस्स सूत्र के स्वाध्याय में विस्तृत रुप से देख चुके हैं।
अरुणोदय में प्रगट प्रकाश को उद्योत या प्रद्योत कहते हैं । सूर्य दिखाई नहीं देता परंतु उसके उझास में जगत् दृश्यमान हो जाता हैं। स्वयं दिखाई नहीं देता परंतु जगत दृश्यमान हो जाए उसे उद्योत कहते हैं। सूर्य उदि होकर धीरे धीरे गगन में गमन करता हुआ मध्याकाश में पहुंच जाता है। धूप के रुप में धरती पर प्रस्तावित हो जाता है उसे प्रकाश कहते है। लोगस्स के प्रारंभ में उज्जोयगरे शब्द का प्रयोग हुआ है। आज का सूत्र लोगपज्जोयगराणं भी
121