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दूसरी बात यह हैं कि दीया तो रात के अंधकार में ही प्रज्ज्वलित होता हैं। पहले रात, फिर अंधेरा, फिर प्रकाश का इंतजार, फिर आगमन, फिर ज्योत का स्पर्श.............फिर........फिर...फिर प्रभु ! हमें तो दिन में भी अंधेरा लगता हैं। तन में अंधेरा, मन में अंधेरा, प्रेम में, पैसे में, प्रतिष्ठा में...... क्या कहुं आपको कि मेरे जीवन में सर्वत्र अंधकार प्रतीत होता हैं। मैं अधेरे में हूँ फिर भी आपके स्वरुप प्रकाश की एक लकीर एक किरण मेरी ओर आती देखकर मुझे उद्योत में आने का मन होता हैं। ऐसा उद्योत मुझे दिन-रात चाहिए।
गणधर भगवंत ने कहा, ठीक हैं। मैं तुम्हें ऐसा मंत्र देता हूँ कि जो तुम्हें उजाला दे, प्रकाश शिघ्र ही प्राप्त कर सको। परंतु उससे पहले मैं तुम्हे एक प्रश्न करता हूँ कि तुम्हें उजाला चाहिए क्यों? बोलो अब हम उन्हें क्या उत्तर देंगे..?
मेरे आपके जैसे लोगों ने इकट्ठे होकर एक तात्कालिक मिटिंग बुलाई। विषय था गणधर भगवंत को हमनें क्या उत्तर देना? प्रभु! जगत् बहुत देखा, अब केवल मात्र परमात्मा ही देखने हैं। अत: हमपर अनुग्रह करो। गणधर भगवंत ने कहा, यह लो मंत्र करो पाठ- लोगपज्जोयगराणं यह मंत्र लो बोलते रहो, जपते रहो, उजाला पाते रहो। प्रकाश पाना और विश्व में ज्योत जलाना। परमतत्त्व उद्योत प्रद्योत कर तुझे देख तो लेंगे पर प्रभु को देखने के लिए तुझे स्वयं का प्रकाश फैलाना होगा और इसके लिए तुझे स्वयं को ही देखना होगा। तु स्वयं को ही देखेगा तो ही स्वयंको पाएगा और इसके लिए मंत्र हैं - नमोत्थुणं लोगपज्जोयगराणं।
लोगपइवाणं और लोगपज्जोयगराणं समान लगने पर भी दोनों में बहुत अंतर हैं। दिया चाहिए, बाती चाहिए, तेल चाहिए, ज्योत भी जलाले तो हवा नहीं आनी चाहिए, रुम बंद होना चाहिए, ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए आदिआदि अनेक शर्त पूर्ण होती हैं तब दीया प्रगटता हैं। पर प्रद्योत बेशर्त प्रगट हो जाता है। हमारी भी स्थिति देखो लोगपइवाणं प्राप्त कर लेने मात्र से हम कोई बडे अध्यात्मिक साधक नहीं बन गए। परंतु हमें किसी भी नयी चीज होनी या आने की खबर होते ही पाने की अभिप्सा जग जाती है। आज भी हमारी वही स्थिति हैं। हम लोक में रहते हैं, लोगों के साथ रहते हैं, लोग में रमते हैं, लोगों को प्रिय लगे या न लगे पर चारों ओर परिभ्रमण करते हैं। हम अकेले ही लोक में नहीं रहते हैं, भगवान भी इसी लोक में रहते हैं।
लोक शब्द के प्रयोग में हम सिर्फ जगत् ऐसा ही अर्थ कर लोक में रहनेवाले ये लोग, वे लोग, हम लोग, तुम लोग ऐसा कहते है। ज्ञानी पुरुष इस व्यवहार जगत् में ही रहकर और जगत् में ही रहे हुए लोगों की बातें कर लोक के अग्रभाग पर ले जाने की प्रक्रिया समझाते हैं। इस लोक में और अन्य लोक में रहे हुए जीवों में चार उत्तम कोटी के तत्त्वों के स्वीकार को मांगलिक कहते हैं। अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म ये चार तत्त्व लोक में हैं फिर भी लोकोत्तम हैं। उत्तमोत्तम हैं। लोगस्स सूत्र के प्रारंभ में लोक को उद्योत करनेवाले अरिहंत परमात्मा हैं इस रुप में लोक शब्द का प्रयोग किया हैं। आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में लोक में परिभ्रमण करनेवाले जीवों को लोकवादी कहा है। लोक को लोक और लोक में रहे हुए जीवों को लोए शब्द कहकर दूसरे अध्ययन का नाम लोकविजय दिया हैं। लोक शब्द को द्रव्यलोक का कारण बताकर, लोक परिभ्रमण की रीत समझाकर द्रव्यलोक
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