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के विजय को प्राप्त करने के उपाय प्रस्तुत कर इस अध्ययन का नाम लोकविजय कहा हैं। उसके बाद लोक का सार धर्म और धर्म का सार निर्वाण बताकर पाँचवे अध्ययन का नाम लोकसार दिया हैं। ठाणांग सूत्र में परमात्मा के कल्याणको में तीनों लोकों में उद्योत होता है। ऐसा कथन प्राप्त होता हैं। विशेष कर नारक के जीव जिन्हें कभी एक भी किरण प्राप्त नहीं होती हैं वहाँ भी परमात्मा के कल्याणक के समय उद्योत होता हैं। इसके अतिरिक्त भगवती सूत्र आदि में भी लोक की विस्तृत चर्चा प्राप्त होती है। परंतु आज हमारा उद्देश्य लोक को प्रद्योतित करनेवाले, उद्योतित करनेवाले, परमतत्त्व को कैसे प्राप्त करना यह होने से हम इसीपर आगे चर्चा करते हैं।
जैसे लोकविजय को समझाने के लिए कहा हैं कि सारे लोक के साथ लडकर विजय नहीं पायी जाती हैं परंतु एक केवलमात्र तेरे अपने ही स्वरुप को देखले। तेरे स्वरुप के बीच में आनेवाले दुर्गुणों के साथ लडले। बस तेरे स्वयं की विजय में संपूर्ण लोक की, संपूर्ण विश्व की विजय समा जाती हैं। एक अपने आत्मतत्त्वपर परमतत्त्व का उजाला फैल जाए तो संपूर्ण लोक में उद्योत हो जाता हैं। परमतत्त्व हमें उद्योतित करे और हम उस उद्योत में स्वयं को देख ले तो विश्व दर्शन हो जाते हैं। यह सबकुछ होने के लिए, हमें स्वयं को देखने ने के लिए अभी कुछ समझना जरुरी है। हम जब हमें देखने लगते हैं तो हमारी कई दृष्टिया अलग अलग तरह से हमारे साथ प्रयुक्त होती हैं। जब हम स्वयं को देखते हैं तो दृष्टि और आँखें तो हमारी ओर होती हैं परंतु हमारी नजर जगत् की ओर होती है। जैसे दर्पण की ओर जब हम देखते है तब हमारा चहेरा, दाढी, साडी आदि देखते हैं। हम ही देखते हैं, हमारा ही देखते हैं पर हमारा मानस लोकदृष्टि से ही देखता हैं। लोग मुझे देखेंगे तब मैं उन्हे कैसा लगूंगा, वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मुझे देखकर लोगों के मानस में मेरे बारे में क्या हो सकता हैं? ऐसी कल्पना कर हम स्वयं को ही लोकदृष्टि से झाँकते हैं, देखते हैं और कॉमेंट पास करते हैं। हमें स्वयं को देखने में रस नहीं हैं लोग हमें कैसे देखते हैं उसमें हमें रस हैं। ओ हो! यह बात भी पूरी होती तो भी हमारा काम हो जाता क्योंकि दूसरे देखते हैं ऐसा सोचनेवाला सर्वज्ञ प्रभु मुझे निरंतर देख रहे हैं इतना मान लेते तो भी बहुत कुछ हो जाता है। आप में से कई लोग कहते हैं कि मानते तो हैं हम। यदि आप मानते हैं और इसे हमेंशा याद रखते हैं आप कुछ भी करेंगे तो महसुस होगा कि परमात्मा देख रहे हैं। आप स्वयं ही जानते हैं कि इस बात में आपको कितना रस हैं। परमात्मा हमें जाने या देखे इस बात में रस कम हो लेकिन स्वयं से स्वयं को जानने, देखने और समझने में कितना रस हैं। हमारी सबसे बडी कमजोरी यही हैं कि हम स्वयं से ही अनजान हैं। इसीलिए कहते हैं
मेरा जनाजा निकला, जनाजे के पीछे सब निकले।
किंतु वह ना निकला, जिसके लिए मेरा जनाजा निकला।। कोई मरता हैं, तो कोई रोता हैं। उसे हम आश्वासन देते हैं। पर हम मरे और हमारे पीछे कोई रोए तो हम आश्वासन देने वापस आयेंगे क्या? नहीं नहीं दूसरों को तो हम हाय हाय, बाय बाय कह देते हैं परंतु हम हमारा कुछ नहीं कर सकते हैं।
__ जो हम स्वयं को स्वयं से न देखने दे उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। यह कर्म स्वयं को नहीं देखने देता परंतु मिथ्यात्त्व में पूरा दिखाई देता हैं। दिखाई तो देता हैं परंतु उलटा दिखाई देता हैं। इसीकर्म के प्रभाव में उलटा ही