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द्रव्यस्पर्श के शास्त्र ने आठ प्रकार बताए हैं - कठोर-कोमल, शीत-गरम,रुक्ष-मृदु और हलका-भारी । अब जरा सा हमें अपने भीतर झाँकना है। हम सामायिक या अन्य कोई भी प्रत्याख्यान पारते हैं तब बोलते है - समकाएणं न फासियं न पालियं........तस्स मिच्छामिदुक्कडं। जिसका अर्थ होता हैं, मैंने सामायिक या प्रत्याख्यान का स्पर्श न किया हो तो मिच्छामिदुक्कडं। अब सोचिए यहाँ कौनसे स्पर्श के बारे में कहा गया है। आठ में से कौनसा स्पर्श हो सकता है? बहुत स्वाभाविक है कि आठ स्पर्श द्रव्यस्पर्श है। सामायिक आदि का भावस्पर्श आवश्यक है। अर्थात् सामायिक की प्रत्येक क्षणे साक्षीभाव के साथ जागृति के साथ होनी चाहिए। यदि ऐसा न हो पाया, मन विचलित हो गया, आत्मा साक्षीभाव से हट गया, जागृति न रह पायी ऐसा कुछ भी हुआ हो उसे दोष माना गया है। उसका मिच्छामि दुक्कडं कहा गया है।
भावानुसंधान होता है तब मिट्टि का दीया आत्मदीपक बनकर परमात्मदीपक में परिणमित हो जाता है। कथानुयोग में चंद्रावतंस नाम के राजा की एक कथा आती है। संध्या का समय था, सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा था, उजाला अंधेरे में परिवर्तित हो रहा था तभी चंद्रावतंस राजा के अंत:करण में प्रभु भक्ति की प्रीत जगी। राज महल के भीतर के कक्ष में पहुंचते पहुंचते आत्ममहल के भीतर के कक्ष खुलते गए। यह कक्ष सूना था। एकांत में था। अंधेरे में था। यहाँ थोडा उजाला चाहिए ऐसा सोचकर उन्होंने एक छोटासा श्रद्धा का दीप जलाया। उनका अंत:करण निर्मल और पवित्र था। द्रव्य दीप के साथ साथ भाव दीपक भी प्रज्ज्वलित हो गया। द्रव्य दीप को दियासली की ज्योत का स्पर्श हुआ और भीतर भगवान की ज्योत का स्पर्श हुआ। परमात्मा का प्रकाश प्रगट होते ही अनायास राजन से एक अभिग्रह की धारणा हो गयी। एक लक्ष्य का संधान हो गया। एक प्रतिज्ञा संकल्पमयी हो गयी। एक संकल्पना में राजा के संसार का उपसंहार हो गया। यम और नियम योगमय हो गये। योग प्रयोगमय हो गया और अंत में प्रयोग अयोग की यात्रा में निकल पडा। अनायास राजा से प्रतिज्ञा हो गयी कि दीया न बुझने तक मैं ध्यान चालु रखूगा। जब तक दीया झिलमिलाएगा मैं किसी भी प्रकार का सावद्ययोग का व्यापार नहीं करूंगा।
कई बार ध्यान चलता हो तब प्रतिज्ञा भी परीक्षा बन जाती है। परीक्षा प्रतीक्षा में परिणमित होती है। राजा का ध्यान केवल प्रज्ज्वलित दीये के साथ जुड चुका था। अचानक ही कथा का दूसरा परिच्छेद प्रारंभ हो जाता है। राजमहल में राजा की एक विश्वासु दासी थी जिसने राजा को गर्भगृह के ध्यान कक्ष में प्रवेश करते हुए देख लिया था। राजा को अधिक समय तक ध्यानस्थ देखकर दासी ने दीपक में तेल खतम हाने से पूर्व ही उसे तेल से परिपूरित कर दिया। बाद में तो यह घटना परम घटना का कारण बनती गई। राजा और दासी के बीच में धारणा का गॅप समाप्त हो गया। दोनों अपने अपने पहलूपर आगे बढते रहे। दासी को अपने राजा के प्रति श्रद्धा थी तो राजा का अपने परमात्मा के प्रति समर्पण था। राजा प्रतिज्ञा में दृढ थे तो राजा की प्रतिज्ञा से अनजान दासी सेवा के प्रति दृढ थी। वह तेल से दीए के परिपूरित करती ही रही। संध्या रात में और रात प्रभात में परिवर्तीत होती रही। इस परिवर्तन ने राजा के भीतर भी परिवर्तन कर दिया। वातावरण की प्रभात राजा के अंत:करण की प्रभात हो गई। दिन का मंगलाचरण दिल का मंगलाचरण हो गया। बाहर चल रहा था कालचक्र उसमें चला कर्मचक्र वह कर्मचक्र धर्मचक्र
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