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दिया। हमारी तरह ही अंधेव्यक्ति की भी सोच थी, जब मुझे दिखता ही नहीं तो मैं इस लालटेन को क्या करूंगा? सद्गुरु ने कहा, तुम्हें भले ही नहीं दिखाई दे पर पथ से गुजरते हुए अंधेरे में देखनेवाला कोई व्यक्ति तुमसे टकरा न जाए इसीलिए तुम्हारे हाथ में यह रखना जरुरी है। अंध व्यक्ति ने बिना किसी तर्क के लालटेन लेकर चलना शुरु किया। रास्ते से गुजरते हुए अचानक एक आदमी उससे टकरा गया। अंधव्यक्ति को समझ में नहीं आया कि कही सामनेवाला व्यक्ति अंधा तो नहीं है। उसने कहा, भाई तुझे लगा तो नहीं है? सामनेवाले व्यक्ति ने जोर से कहा, टकराओगे तो लगेगा तो सही। इतनी फिकर हैं तो देखकर क्यों नहीं चलते ? और यदि देखना ही नहीं था तो लालटेन लेकर क्यों घूम रहा है ? अंधव्यक्ति ने कहा मित्र! मैं तो जन्म से ही अंध हूँ। मैं यह भी नहीं जान सकता हूँ कि आप कैसे हो? पर हा, देखता हुआ कोई भी व्यक्ति मुझसे टकराए नहीं इसके लिए यह लालटेन लेकर चल रहा हूँ। मुझे भले ही ना दिखाई दे लेकिन देखनेवाले व्यक्ति से मैं टकाराउ नहीं और उसके पथ दर्शन का सहयोगी बनें ऐसा सोचकर सद्गुरु ने मुझे जगत् प्रकाश के लिए लालटेन दिया है। मैं भी आपको दिखाई दू और पथ भी आपको दिखाई दे। अब बारी थी देखनेवाले व्यक्ति की। वह झिझक गया, सम्हल गया और शरमा गया। उसने कहा धन्य हैं तुम्हारे सद्गुरु जिन्होंने जगत् के अंधकार में रोशनी प्रगट की। धन्य हैं तुम्हें भी जगतको प्रकाश देने के लिए लालटेन लेकर हम जैसों का पथ प्रदर्शन करते हो। अनंत गुरु गणधर भगवंत इस जगत् के अंधकार में हमें लोकपइवाणं का दीया पकडाते है। जाओ! जगत् में जहाँ कही भी अंधेरा है वहाँ उजाला करो। पथ प्रदर्शन करो।
कईबार हमारे साथ ऐसा होता है। गुरुप्रदत्त भेंट या शिक्षा कब, कहाँ, कैसे और किन संजोगों में काम आएगी यह हम नहीं जानते हैं। लेते समय हम कई तर्क करते है। तर्कों में लपेटकर हम स्वयं को बुद्धिामान समझते है। सूर्य के साथ आँखें मिलाकर गर्भवती हो जानेवाली कुंती की कथा को महाभारत की सिरीयल में देखकर किसी जैनीने तर्क नहीं किया कि ऐसा कैसे हो सकता है? सूरज के साथ दृष्टि मिलाकर सूर्य की किरण पकडकर अष्टापद पर्वतपर चढने का सामर्थ्य रखनेवाले अनंतज्ञान के स्वामी के वात्सल्यपात्र अनुग्रहपात्र गौतमस्वामी की घटना हमारे कौतुहल का कारण बन जाती है। परम निष्कारण में अपने कारणों को जोडकर महापुरुषों की बुद्धि को तोलने का काम जैनों के सिवा अन्य कर भी कौन सकता है? कथा साहित्य हो या पौराणिक साहित्य हो हम परमात्मा के प्रज्ञादीप को पहचान भी नहीं सकते है। यही बातें जब विज्ञान प्रुफ कर देती है तब हम शमींदा होते है। परम पुरुष की प्रज्ञा प्रेरणा का परमबल होती है। प्रज्ञा जब प्रेरणा बन जाती है तब आज्ञा का रुप लेकर शिष्य में समा जाती है। .
इस अहंकार में लोक के प्रदीप परम तत्त्व हमारे जैसे पामर जीवों के साथ लोगपइवाणं बनकर गिरते हुए को बचाते हैं। भटकनेवालों को सन्मार्ग दिखाते हैं। अटकते हुए को गति देते हैं। यदि परमतत्त्व उनकी ऐसी प्रज्ञा पदीप की प्रेरणा का दिया नहीं प्रगट करे तो इस अनंत संसार में से हमें कौन बचाएगा ? हमारे तो दोनों लोक में अंधेरा है। बाहर संसार में भी और हमारे भीतर भी। भीतर भगवान पधारे तो भीतर भी उजाला होता है और बाहर भी उजाला होता है। हम स्वयं भी इस अनंत संसार से बच सकते है और हमारे साथ आस पास के भी बच सकते है। इसे कहते हैं अंधदीपन्याय।
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