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जन्म जन्म से अंधकार में भटकनेपर भी हम लोकपइवाणं का स्पर्श न पा सके। कभी कभार स्पर्श पाने का अवसर आया भी हमारे पात्र में बत्ती बराबर नहीं थी। किसी गुरुमाता ने हममें भावना की बत्ती भर दी तो श्रद्धा का तेल खतम हो गया। पुण्योदय से सद्गुरु ने श्रद्धा का तेल भी पुरा फिर भी ज्योति के स्पर्श के अभाव में हम ज्योतिर्मान नहीं हो पाए। आज परम पुण्योदय से अनंत गुरु गणधर भगवंत नमोत्थुणं के माध्यम से परमपरमात्मा रुप दीपक की ज्योति के साथ हमारा स्पर्श करा रहे है। सूरज भी उजाला तो देता है परंतु अंत में तो वह भी अस्त हो जाता है। पावर हाउस के साथ संबंध जोडकर लाईट का कनेक्शन ले लेते हैं तो अंधेरे में उजाला तो हो जाता है परंतु नियमितता के खंडीत हो जानेपर लाईन डिस्कनेक्ट हो जाती है। ऐसा अनुभव हम सबको हैं। छोटे से झिलमिलाते दीपक को किसी कनेक्सन की आवश्यकता नहीं है। बस उसके संबंधित थोडे से नियमों का पालन हो जाए वह पूरे घर को रोशन कर देता है। हमारा शरीर भी मिट्टी का दीपक है। उसे परिपूरित करके आत्मा के चिराग से परम ज्योति का स्पर्श हो जाए तो संपूर्ण जीवन रोशन हो जाता है । चित्त के इस चिराग में तेल, बत्ती आदि के समाप्त होकर दीया बुझे उससे पहले हमें सावचेत और सावधान हो जाना जरुरी है। गणधर भगवंत द्वारा प्रदत्त इस शास्वत ज्योत के साथ ज्योत का स्पर्श हो जाए तो भवांतर में भी यह दीया अनबुझ रहता है। आज लोगपइवाणं मंत्र के द्वारा परम ज्योत को हमारी भावना व्यक्त करेंगे। परम ज्योति स्वरुप हे परमात्मा ! मेरे चित्त के चिराग में सदा ज्योत जलती रहे ऐसी करुणा करना। आप के ज्योति के इस उजाले में आपके चरणों को देखते देखते हम मार्ग काटते रहेंगे। आपके ही उजाले में हम अपने उबड खाबड पथपर भी आराम से आगे बढेंगे और मंजिल को पा सकेंगे। बिना उजाले के अनादी काल से हमनें अंधकार में अनेक यात्राएं की। चलते भी रहे, गिरते भी रहे, मार्ग हमेशा
अखूट रहा। इस संसार में चलनेवालों को गिरानेवाले मिलते हैं पर गिरते हुए को बचानेवाले या गिरे हुए को उठानेवाले नहीं मिलते है। प्रभु ! तुम्हारी आज्ञा, तुम्हारे शास्त्रों का स्वाध्याय, तप, जप आदि हमें अवश्य सहयोग देते हैं। परंतु उसमें हमारे भाव और भक्ति का सांमजस्य नहीं हो पाता। उस कारण हम उसका परिपूर्ण पालन कर प्रकाश प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
दीपपर से अंधदीपन्याय, देहलीदीपन्याय और दिलदीपन्याय की कहावतें प्रचलित है। पथ में, घर में, दिल में या जीवन में जहाँ भी दीया प्रज्ज्वलित होता है वहाँ स्वयं को और अन्य को उजाला प्राप्त होता है । पर हमारे साथ रहनेवाले या हमारे सामने आनेवाले या हमारे आसपास रहे हुए सबको प्रकाश प्राप्त होता है। परमपुरुष हमें कब कितना और कैसे उजाले की आवश्यकता है, कितना प्रकाश पाने का हममें सामर्थ्य हैं और कितना प्रकाश अन्यों को देने की क्षमता रखते है, यह सबकुछ जानकर हमारे जीवन में दीया प्रगट करते है।
एकबार रात्रि के समय में एक अंधव्यक्ति गुरु के साथ सत्संग संपन्न कर लौट रहा था। गुरु ने अंधव्यक्ति के हाथ में एक लालटेन पकड़ा दी। आँखोंवाले व्यक्ति में तो दिन-रात का, अंधेरे-उजाले का परिणाम और प्रभाव होता है परंतु किसी अंधव्यक्ति के लिए सब समान है। दिन हो या रात हो, अंधेरा हो या उजाला हो उसे कभी भी दिखाई नहीं देता है। हम सब की इस धारणाओं से विरुद्ध सद्गुगुरु ने उस अंधव्यक्ति के हाथ में लालटेन था
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