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के इस गुण को स्पष्ट करती है। संगम ने जब परमात्मा के उपर घोरतम उपसर्ग किए तब स्वयं के ही घोरकर्मोंका उदय समझकर अत्यंत क्रूरता पूर्वक उसका उन्मूलन किया। यदि कर्मों के प्रति क्रूर न होते तो संगम दुश्मन हो जाता और संगम के प्रति उनका आचरण कठोर हो जाता। यहाँ परमात्मा कर्मों के प्रति क्रूर और संगम के प्रति कोमल थे।
३.असहिष्णु:- सहिष्णुता दो प्रकार की होती है। कष्टों को सहन करना और अन्याय को सहन करना। परमात्मा स्वयं के कषाय और अन्यों का अन्याय सहन नहीं करते हैं। भगवान महावीर ने प्रमाद, क्रोध आदि को कभी भी सहा नहीं था। चिरकाल तक निद्रा के आधीन नहीं हुए थे। थोडे से प्रमाद की आशंका होते ही परमात्मा चंक्रमण करते (घूमते) थे। अच्छंदक आदि नैमित्तिको के इर्ष्या आदि अवगुणों को सहन नहीं करते हुए वहाँ से विहार करते हैं।
४. वीर्यवान :- सिंह हाथी आदि के सामने जिस तरह पूर्ण पराक्रम से प्रस्तुत होते हैं उसी तरह परमात्मा रागद्वेष आदि का मुकाबला पूर्ण पराक्रम से करते हैं। परमात्मा का वीर्य सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभाव में पूर्ण प्रकाशित और उल्हसित रहता है।
५. वीर :- सिंह वनवास और वनविहार अकेले पूर्ण वीरता के साथ करते हैं। वैसे ही अरिहंत परमात्मा समस्त संयमचर्या पूर्ण वीरता के साथ व्यतीत करते हैं। भगवान ऋषभदेव हजारों पुरुषों के साथ दीक्षित हुए थे। चर्या कठिन लगने के कारण कई साधु ने मार्ग छोड दिया तो कई अलग रहकर स्वच्छंद हो गए। किसी की भी परवाह न करते हुए परमात्मा ने अखंड पुरुषार्थ से मार्ग की उपासना की।
६. अवज्ञावाले :- जैसे सिंह स्वयं के सिवा अन्य सब को क्षुद्र गिनकर उनकी अवज्ञा करता हैं उसीतरह तीर्थंकर भगवान भूख-प्यास, धूप-छाँव, मान-अपमान आदि परिषहों को तुच्छ गिनकर उसके प्रति लापरवाह रहते हैं। ये परिषह क्यों आए? कब खतम होंगे? इसे सेहने में किसकी सहायता ली जाए? आदि किसी भी प्रश्नपर कभी सोचते नहीं है। वे अत्यंत स्वाभाविकता से इसे सहन कर लेते हैं।
७. निर्भय :- जिस तरह सिंह जंगल में अकेला घूमता है पर किसी से भयभीत नहीं होता है। भयजनक स्थिति में भी निर्भीक रहता है। परमात्मा का सिद्धांत है कि, देह और आत्मा के बीच के अभेद से भय उत्पन्न होता है। तीर्थंकर प्रभु देह और आत्मा के बीच के भेद को निरंतर बनाए रखने में सतत जाग्रत रहते हैं। साधना काल में आनेवाले किसी भी परीषह और उपसर्गों के समय भेद विज्ञान के आधारपर निर्भीक रहते हैं। भय रहित आत्मदशा उनका सहज स्वभाव होता है।
८. निश्चिंत :- इष्ट का संयोग और अनिष्ट का वियोग चिंता का कारण होता है। परमात्मा संयोग वियोग की इस क्रममाला से बिलकुल अलग होते हैं। स्वचिंता, परचिंता, इन्द्रियचिंता, पदार्थचिंता आदि किसी भी प्रकार की चिंता उन्हें दुखदायी नहीं बना सकती है। हर्ष और उद्वेग से रहित होने के कारण चिंता हो भी कैसे सकती है? स्वावलंबी होने के कारण निश्चिंतता उनके जीवन मे स्वाभाविक होती है।
९. अखिन्न :- सिंह जिस तरह प्रत्येक प्रवृत्ति खेद और खिन्नता से रहित करता है उसीतरह तीर्थंकर महाप्रभु की जीवन चर्या खेद और खिन्नता से रहित होती है। निरंतर प्रसन्न और प्रशांत रहने के कारण खेद और