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पंक्ति में वासितबोध का आधार बताया है। बोध के दो प्रकार हैं - एक शब्द बोध और दूसरा वासितबोध। महापुरुषों के शब्दों को अनुभूति के बलपर हमें अपनें में वासित करना होता हैं। जो वासित नहीं होता वह अनुभूति में भी नहीं होता। उन शब्दों का कोई मूल्य नहीं होता। शब्द जब वासित होते हैं तब मंत्र बनते हैं। मंत्रदृष्टा ऐसे वासित मंत्रों के आधारपर योग्यता के अनुसार निजचेतना द्वारा मंत्रदान करते हैं। ऐसे ही मंत्र परिणाम प्रगट करते हैं। शायद आप जानते होंगे कि हमारी संस्कृति में सूत्र का श्रुतदान होता था। पूर्वकाल में शास्त्रलेखन की कोई व्यवस्था नहीं थी। कथन और श्रवण के माध्यम से वाचना दी जाती थी। युगान्तर में लेखन पद्धति का प्रारंभ करने के लिए अनेक वाचनओं की व्यवस्था की गई थी। अनेक गीतार्थोने मिलकर मथुरा में जो वाचना दी थी उसे माधुरी वाचना कहते है। पाटलीपुत्र में भी वाचना हुई थी। बारह साल के दुष्काल के बाद सूत्रों को बचाने के लिए नेपाल में महाप्राणध्यान साधना में बिराजमान भद्रबाहुस्वामी को उठाकर वासितबोध का संकलन किया गया था। इसतरह शास्त्रों की लेखन पद्धति का प्रारंभ हुआ।
गुरु शिष्य में शब्दों के द्वारा वासित बोध प्रगट करते हैं। एक दो बार गाथाए सुनाकर गुरु शिष्य को वाचना देते थे। मुझे आज भी याद है दीक्षा से पूर्व जब मैं छोटी थी तब कांदावाडी उपाश्रय में एकदम उपर लकडी का कातरीया हैं। कातरीया अर्थात् हेडरुम। बहुत बडा है। जैसे कारखाना हो। तब बिलजी की कोई व्यवस्था नहीं थी। अंधरे में मुझे उत्तराध्यन शिखाया जाता था। दो बार गाथा सुनाकर बीस बार मुझसे दोहराते थे और वह गाथा मुझे याद हो जाती थी। उस समय जो आंदोलन उत्पन्न हुए मुझे आज भी याद है। आज भी जब उन गाथा का भाव सामने आता है तब आंदोलन के साथ वह गाथा प्रगट होती है। यह हुआ शब्दबोध' में से वासितबोध। वासित हुआ बोध विविध रुपेण भाव और भाषा में प्रगट होता है। परिणामत: जब जब विशेष स्वाध्याय का अवसर होता है तब उनमें से अनेक अर्थ स्फुरित होते है। तरतम जोग अथोत् योग्य अवसर। जैसा योग वैसा अवसर। जैसा काल वैसी वासना। ऐसा अनुभूति में बोध प्रगट होता है। इसीलिए आगे काललब्धि का सहारा लेकर योगीजी कहते हैं -
काळलब्धि लही पंथ निहाळसु रे,
ए आशा अवलंब यहाँ नीचे की पंक्ति के द्वारा आशा के माध्यम से काललब्धि को पकडने की बात कही हैं। तप जप आदि काललब्धि को पकडने की प्रक्रिया है। इसीकारण यशोविजयजी महाराज संभवनाथ भगवान के स्तवन में कहते हैं
काललब्धि मुझ मत गणो,
भावलब्धि तुम हाथे रे! हे परमात्मा! इस पंचमकाल में काललब्धि नहीं पकेगी ऐसा जानकर हम निराश होकर बैठे नहीं रहेंगे परंतु आपको आपकी भावलब्धि प्रगट करने पडेगी। आपकी भावधारा जब लब्धि स्वरुप में प्रगट होती है तब
काल स्वभाव अने नियति ओ सघळा तुझ दासोरे, ...... ओ मुझ सबळ विश्वासो रे।
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