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नहीं है यह सूचना है जो पूर्व में जरुर देनी होती है परंतु अॅक्सीडंट हो जाने के बाद उसे परवरिश की जरुरत है। प्रेम से हाथ फेर कर उसे कहना चाहिए कि घबराओ मत कहाँ लगी है? गाडी तो ठीक हो जाएगी तुम पहले ठीक हो जाओ। यह हित की बात है। समझकर कहनेवाली बात हित की होती है। समझे बिना कहीं जाने वाली बात टिकटिक होती है।
जगत् के जीवों को प्रतिक्षण सुख की अभिप्सा होती है। तब वह प्रत्येक पदार्थ में से सुख को.खोजता है। तब ज्ञानी पुरुष समझाते है कि सुख पदार्थ में नहीं है, इन्द्रिय में नहीं है, कोई भी सुख शास्वत भी नहीं है। कोई भी सुख या दुःख क्यों आते है इसे समझना चाहिए। परम कृपालु राजचंद्रजी ने कहा है
शुं करवाथी पोते सुखी, शुं करवाथी पोते दुःखी।
पोते शुं क्याथी छे आप, तेनो मागो शिघ्र जवाब। अपने स्वयं के अस्तित्त्व से अनजान या अनभिज्ञ रहना स्वयं का अपमान है। ऐसा समझाने के बाद भी सुख के प्रति हमारा ममत्त्व कम नहीं हो पाता है। भौतिक सुख की गाडी भगाते ही रहते है। भागते है, भगाते है, भटकाते है, गिरते है, गिराते है। जब चोट लगती है तब क्षणिक वैराग्य आता है। उस समय परमात्मा हमें सलाह सूचना देने नहीं आते है, परंतु हमें झुककर उठाते है, गले लगाते है, पीडा का शमन करते है और वाणी से परिचर्या करते है, वत्स ! संसार ऐसा ही होता है। यहाँ के प्रत्येक मार्ग चिकने है। हमेशा सावधानी रखनी चाहिए। इसे अनुग्रहहित कहते है। अनुग्रह कभी आग्रह में परिणमित नहीं होता। इन विचारों को अंकित करते हुए एक कवि ने कहा है
यूं तो हर दिल किसी दिल पे फिदा होता है, प्यार करने का तौर मगर जुदा होता है।
आदमी लाख सम्हलनेपर भी गिरता है,
जो झुककर उसे उठाले वही तो खुदा होता है। तीर्थंकर परमात्मा कृतकृत्य हो गए है। फिर भी वाणी का प्रकाशन क्यों करते है? यदि आपको ऐसा पूछे तो आप क्या कहोगे? प्रश्न व्याकरण सूत्र में परमात्मा के प्रवचन का कारण बताते हुए कहा है, सव्व जग जीव रक्खणट्ठयाए दयट्ठायाए भगवया पावयणंसुकहियं । सर्व जीवों की दया, रक्षा और हित हेतु भगवान प्रवचन, कथन करते है। ये तीनों हेतु एक साथ इस लोक और परलोक में शुद्धरुप, न्याययुक्त, तर्कसंगत, अकुटिल अर्थात् मायारहित और अनुत्तर हो ऐसा ओर कोई दे भी कौन सकता है? परमात्मा की वाणी इन सारी शर्तों को पूर्ण करती है। सर्व दुखों को शांत करती है। यह सब हमारे इस भव और परभव दोनों में फल देती है। इसीलिए परमात्मा की वाणी को अत्तहियट्ठयाए कहा है अर्थात् परमात्मा की वाणी आत्महित के लिए होती है। संसार में सबसे अधिक दुर्लभ आत्महित की बात करनेवाले होते है।
परमात्मा आत्महित के लिए प्रवचन करते है। गुरु इन प्रवचनों को यम, नियम और उपसंपदा के रुप में जब शिष्य में आरोपित करते है तब भी आत्महित का लक्ष्य रखा जाता है। इसीलिए गुरु शिष्य को पंचमहाव्रत की
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