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मैं बाहर भी न सकी । कैसा लगा खाना आपको? ऐसा करके स्वयं प्रशंसा करवा लेती है। कईबार महेमान भी अपनी बात का आग्रह रखते हुए कहते है, खाना तो बहुत अच्छा था, यहाँ तो शब्द सस्पेंड है। सामनेवालों में तो फिर क्या है, ऐसा प्रश्न हो ही जाता है और वह फिर आगे चलता है - कढी थोडी खट्टी कम थी बाकी सब अच्छा था। महिला से फिर नहीं रहा गया उसने कहा लेकिन यह बताओ ना हलवा कैसा था? वह तो बहुत बढिया था लेकिन मीठा ज्यादा था । इसतरह आग्रहहित में हित को जाने बिना केवल आग्रह होता है। इसमें दोनों पक्ष का आग्रह होता है और दोनों पक्ष में अहं होता है।
अब हम अनुग्रह हित की चर्चा करते है। हम जो कुछ भी कार्य प्रवृत्ति करते है उसके परिणाम से अनभिज्ञ होते है । इस परिणाम को प्रवृत्ति के समय जो जान लेते है वे ज्ञानी पुरुष है। जान लेने के बाद नुकसान होने से पहले रुकवा लेते है, बचा लेते है और वह काम नहीं करने देते है उसे अनुग्रहित कहते है। जैसे अबोध बच्चा अचानक भगकर उस रास्तेपर जाने लगता है जहाँपर अनेक गाडियाँ आ रही जा रही होती है। उस मार्गपर जाते हुए बच्चे को रोकते हुए वापस लाने में बालक के प्रति अनुग्रहहित है। सुख की प्राप्ति के लिए संसारी लोग सुख की व्यवस्था करते हैं, सुख के साधन इकट्ठे करते है, उपयोग करते है। उससे जो परिणाम आते है उसे सुख मानते है। ज्ञानी पुरुष केवल मात्र इस परिणाम को ही सुख नहीं मानते है। सुख प्राप्ति के लिए की जानेवाली व्यवस्था मात्र में सामने दिखाई देनेवाले परिणाम के अतिरिक्त भी कुछ अनजाने परिणाम होते है उसका फल वे जानते हैं, देखते हैं, समझते हैं। तभी तो कहते है - सुख प्राप्त करता सुख टळे छे, लेश ओ लक्षे लहो। ऐसा कौन कह सकता है ? क्योंकि सुख प्राप्त करलेनेपर सुख मिलता है ऐसा तो जगत् में सब कहते हैं । परंतु सुख प्राप्त करनेपर सुख नहीं मिलता है, ऐसा तो ज्ञानी पुरुष ही कह सकते है। शास्त्रों में इसके लिए बहुत सुंदर उदाहरण कहा गया है
जहा कम्पाग फलाणं, परिणामो न सुंदरो।
एवं भुत्ताणं भोगाणं, परिणामो न सुंदरो ॥
किम्पाग नाम का एक फल होता है जो दिखने में बहुत सुंदर होता है, खाने में भी स्वादिष्ट होता है परंतु खाने के कुछ समय बाद विष का परिणाम प्रगट होता है। इसलिए कहा है कि फल भले ही सुंदर हो परंतु उसका परिणाम सुंदर नहीं है। इसीतरह संसार के उपभोग बाहर से अच्छे लगते है परंतु उनका परिणाम सुखमय नहीं होता है। परिणामों के आधारपर पदार्थ की हितमय व्याख्या प्रस्तुत करने के कारण परमात्मा को एगंतहियधम्माक हैं। परमात्मा एकांत हित हेतु धर्म का कथन करते हैं।
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हिआणं अर्थात् हितेच्छक - हितस्वी । अर्थात् नुकसान होने से पूर्व प्रवृत्ति में परिवर्तन कर देना । या ऐसा भी कह सकते है कि नुकसान को निष्फल कर देते है। जैसे किसी टाईमबॉम के विस्फोट होने से पहले बरामद होनेपर उसे डिस्क्युझ कर देना ताकि वह निष्फल हो जाय। अधिकांश संसार में हितेच्छक वे कहलाते है जो किसी अचानक घटना के बन जानेपर एकदम सलाह देना शुरु कर देते है। जैसे बेटे के द्वारा गाडी का अॅक्सीडंट हो
पर कितनी बार कहा है ध्यान रखकर गाडी चलाओ। मुझे पता ही था कि तू एक न एक दिन गाडी ठोककर ही आएगा आदि आदि । ऐसी बाते करते समय माता पिता स्वयं को हितेच्छक समझते हैं। हकीकत में यह हित की बात
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