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कि उसे बलिदान देने के लिए ले जा रहे है। मंत्रोच्चार के पूर्व पंडितों ने उसकी सिरपर हाथ रखकर उसे समझाना शुरु किया तू कितना भाग्यशाली है। धर्म के नामपर तेरी मृत्यु हो रही है। भगवान के नाम का स्मरण कर। धर्म हितार्थ तेरी कुरबानी तूझे स्वर्ग में पहुंचाएगी। पंडितो के शब्द कानपर पडते ही अश्व सावधान हो गया। धर्महित
और भगवान एकसाथ उसके रोम रोम में राचने लगे। निरंतर इन शब्दों की गुंज से उसके भीतर उहापोह हो गया। धर्महित और भगवान इन दो शब्दों के स्मरण में वह गहरा उतर गया। भगवान का स्मरण तो मरण के समय होना स्वाभाविक है परंतु इसके तो स्मरण के साथ पुकार और पुकार के साथ साक्षात्कार होना प्रारंभ हो गया। अश्व की वृत्ति की प्रवृत्ति बन गई। अस्तित्त्व का एहसास हो गया। परमात्मा के आगमन का विश्वास हुआ। उसके मुखपर मुस्कान उभर गई। अचानक वह नाचने लगा। पंडित समझे भोग सामग्री स्वरुप फल-फूल-नैवद्य को देखकर बिचारा खुश हो रहा है लेकिन यह खुशि कितने समय रहेगी? अभी इसकी आहुति हो जानी है। अश्व मन ही मन में कह रहा था तुम यज्ञ में मेरी क्या आहुति दोगे? मैं स्वयं प्रभु के चरणों समर्पित हो जाउंगा।
यह घटना भगवान मुनिसुव्रतस्वामी के समय की भरुच के पेठाणपुर नगर की है। उस समय परमात्मा भरुच से ६० योजन दूर थे। ६० योजन अर्थात् २४० माईल अर्थात् ३८४ कि.मी. होता है। इतने दूर रहे हुए परमात्मा ने स्वयं के ज्ञान और ध्यान में जाना और देखा कि भरुच में एक अश्व प्रतिबोधित होने के लिए उत्सुक हो रहा है। शिघ्र ही परमात्मा भरुच में पधारे। समवसरण की रचना हुई। यज्ञ में आमंत्रित देवता परमात्मा के समवसरण में पधारे। विशाल मानव समुदाय वहाँ पहुंचा, पंडित भी पहुंचे, तिर्यंच भी पहुंचे। हमारा अश्व भी समवसरण में पहुंच गया। मुनिसुव्रतस्वामी ने देशना फरमाई। देशना संपन्न होते ही गणधर भगवंत ने पूछा, प्रभु ! आपकी आजकी देशना में कौन प्रतिबोधित हुआ। परमात्मा ने अश्व की ओर दृष्टिकर संकेत किया कि यह अश्व प्रतिबोधित हुआ। जिसके हित के लिए यहाँ आना हुआ वह कार्य संपन्न हुआ। गणधर भगवंत समेत सबका ध्यान प्रतिबोधित अश्व की ओर गया। अश्व की आँख में आनंद के आँसु थे। मुख पर उल्हास था। हृदय गदगदीत था। रोम रोम में प्रभु के अनुग्रह का आनंद उछल रहा था। अश्व को जातिस्मरण ज्ञान हुआ। पूर्वजन्म की स्मृति हुई। नमोत्थुणं की साधना जाग्रत हो गई। नमोत्थुणं लोगहिआणं के पाठ में वह मग्न था। परमात्मा ने उसकी अबोधि हटाई। उसमें बोधि प्रगट की। प्रभु का ध्यान अश्वपर और अश्व का ध्यान प्रभु पर है। वाह! भक्त भगवान की जोडी। अश्व के भीतर परावाणी प्रगट हो गई- समाहिवरमुत्तममं दितु। परमात्मामाने एक हाथ अश्व की ओर किया वह बैठ गया। फिर दूसरा हाथ उठाकर अश्व के मस्तक पर रखा। सब के देखते देखते अश्व समवसरण से बाहर निकल गया। समवसरण के बाहर भी परमात्मा लोगहिआणं उसके साथ थे। परम साधना प्रारंभ हो गई। मोक्ष मार्गप्रशस्त हो गया।
। एक के हित में अनेकों का हित हो जाता है वहाँ परमात्मा अवश्य पहुंच जाते है और एक के हित से अनेकों का या शासन का अहित होता हो तो देवता भी भावों को संकुचित हो जाते है
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