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प्रसाद है। प्रभु की आज्ञा मेरे अनुग्रहहित का कारण है। ऐसा सोचकर निर्लेप वृत्ति से इसे ग्रहण किया। यद्यपि यह विधि कठिन अवश्य थी परंतु लोगहिआणं साथ थे। साथ थी उनकी लोकहितैषिणी आज्ञा।
तप के प्रकारों में उपवास का मात्र एक ही प्रकार है। बाकी के पांच प्रकार खाने के ही है। खाना फिर भी तप गिना है। यह कैसी अद्भुत प्रक्रिया है। प्रथम अनसन तप है। अन असन अर्थात् उपवास। अनसन का एक अर्थ संथारा भी होता है। अधिकांश लोग यही अर्थ समझते है परंतु इसका वास्तविक अर्थ उपवास है। अनसन के बाद दूसरा तप उणोदरी है। इस तप में खाना होता है परंतु कम। उदर अर्थात् पेट। उण अर्थात् थोडा कम, पूर्ण न भरना। तीसरा है वृत्तिसंक्षय अर्थात् पदार्थ में से खाने की वृत्ति का संकोच करना। वृत्ति को संक्षेप कर खाना लेना। उसके बाद रस परित्याग है। इसमें पदार्थ जैसा हो वैसा ही रस का आस्वादन किए बिना आहार का उपभोग करना। इस प्रकार खाने के छूट होते हुए भी वृत्ति के खेल बंद करना यह ऐषणा समिति में समझाया है। कैसे चलना यह इर्यासमिति में बताया है। कैसे बोलना यह भाषा समिति में समझाया है। इसतरह संपूर्ण जीवन शैलि में परमात्मा पधार जाते है। नए जीवन का प्रारंभ होता है। खाना, पीना, चलना, बोलना सब प्रभुआज्ञा के अनुसार। इसकी संख्या आठ होने से इसका नाम अष्टप्रवचन माता है। जैसे माँ बच्चे को खाना पीना सिखाती है इसीतरह अष्टप्रवचन माता संयमी आत्मा को खाना पीना सिखाती है। फिर भी दोनों में अंतर है। बच्चे के सिख लेनेपर माँ का सिखाने का पाठ पूर्ण हो जाता है परंतु अष्टप्रवचन माता का संयंमी के साथ का संबंध आजीवन अंतिम साँस पर्यन्त रहता है।
परमात्मा ये सब सिद्धांत सिर्फ हमपर थोपते नहीं है परंतु सभी प्रक्रियाओं का प्रयोग पहले स्वयंपर करते है। परमात्मा का जीवन एक चलती फिरती प्रयोगशाला है। भगवान महावीर के देवगमन के पश्चात भाई नंदिवर्धन के दीक्षा की आज्ञा न देनेपर परमात्मा ने दो वर्ष तक घर में रहकर छह छह महिना चारों दिशाओं में ध्यान कर गृहस्थों के लिए आगार धर्म के अनुभूति पूर्वक प्रयोग किए थे। समस्त जीवों के हित की कल्पना उनकी सुरक्षा का संपूर्ण पद प्रस्तुत किया था। उनकी आज्ञा नुसार कदम उठाने वाले सफल जीवन जीकर मोक्षगामी बन सकते है। केवलज्ञान के पूर्व तीर्थंकर पर्याय में भी जगत् के जीवों के हित को प्रभु ने खुलकर बहाया था।
शूलपाणियक्ष, चंडकौशिक, चंदनबाला आदि अनेक आत्मओं का कल्याण प्रभु ने केवलज्ञान के पूर्व ही किया था। जिनका स्वयं का आग्रह टूट जाए। अन्यों के प्रति का आग्रह टूट जाए। सारे हठाग्रह टूट जाए उसे अनुग्रहहित कहते है। इस हित में अन्य जीवों को अधिक से अधिक सुख सोभाग्य कल्याण प्राप्त हो और वे आत्मविकास कर सके ऐसी भव्य भावना के साथ संयुक्त परहित में अनुग्रहहित समाया हुआ है। ____एकबार भरुच के पैठणपुर नगर में अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन था। इस यज्ञ में अश्व का बहुत महत्त्व होता है। हृष्ट पुष्ट अश्व के द्वारा आहुति दी जाती है। ऐसे ही एक अश्व को अश्वशाला में से बाहर निकाला गया। नहला धुलाकर नवीन वस्त्राभूषण पहनाकर यज्ञशाला की ओर पंडित लोग ले जा रहे थे। पंडितो ने देखा अश्व की आँख में आंसू है। पंडितों के मन में हुआ क्या यह आहुति शब्द समझ गया होगा? क्या उसे खयाल आ गया होगा
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