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तो क्या करते हो? कितने रुआब से कहते हो यह सीट मेरी है जैसे पूरी ट्रेन ही आपकी हो। दो पांच घंटे की सफर में पैसे देकर ली हुई सीट का इतना महत्त्व है तो नमोत्थुणं लोगुत्तमाणं कहकर परमात्मा के चरणों में स्थान पाने का कितना महत्त्व हो सकता है। जो हमें अपने आत्म स्वरुप के सहजिकता का आनंद दे, स्वयं का अनुभव कराए वह कितना महत्त्वपूर्ण हो सकता है।
__ गणधर भगवंत कहते है पंचमकाल आदि को भूलकर इस पद की उपासना कर। यह पद चौथे आरे में भी था तीसरे आरे में भी था और आज पंचमआरे में भी है। जब जब तू इसकी उपासना करता है तब तब तू द्रव्य, क्षेत्र
और काल की मर्यादा से पर हो जाता है। भले ही हम लोग में गति करनेवाले अधूरे स् है परंतु पूर्ण स हमारे साथ होने से उनके चरणों में नमस्कार करते हुए लोगुत्तमाणं पद की समृद्धि हमारे मोक्ष का कारण बन जाती है। भरतक्षेत्र के अरिहंत लोक में ही थे। वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र के अरिहंत भी लोक में हैं और परमसिद्ध परमात्मा भी लोक के अग्रभाग में हैं। परमात्मा की उत्तमता का स्वीकार करो, साक्षात्कार करो और अधमता या अधूरेपन में पूर्णता को प्रगट करो। पूर्वकाल में नहीं मिलने का अफसोस करने की अपेक्षा वर्तमान में प्राप्त का स्वीकार करो। स्वागत करो। सन्मान करो। लोगुत्तमाणं की उपासना कर मोक्ष मार्ग की ओर कदम बढाओ। आप के प्रत्येक कदम केवलज्ञान की प्राप्ति की पूर्वभूमिका बन जाएगा।
___परम गणधर भगवंत हमें कहते हैं, परम तीर्थंकर पुरुष इस लोक में ही रहते हैं जिस लोक में तुम रहते हो। वे प्रगट हो गए तुम अप्रगट हो। मात्र लोक में उत्तमोत्तम क्या है यह हमें जानना चाहिए। हमारा जन्म होते ही माता पुत्र के रुप में पहचानती है। पिता हाथ में लेकर पुत्र के रुप में पहचानते है। इसतरह प्रत्येक व्यक्तियों के साथ हमारे भिन्न भिन्न संबंधो की पहचान होती रहती है, परंतु परमात्मा के साथ तो हमारे कोई दैहिक संबंध नहीं होते है। पहचान नहीं है। जैसे कुछ लेन देन ही नहीं है। फिर भी जिन्होंने हमें पहचान लिया है और हमें उनकी उत्तरधारा में बहने दिया है। जैसे बहती हुई प्रसन्न नदी जब बहती है तो उसके पानी के प्रवाह में पानी के साथ कूडा भी बहकर तटपर आता है। उसीतरह महाचेतना, परमचेतना जब हममें बहने लगती हैं तब विषय और कषाय, विकार और विभाव भी बहकर तटपर आकर अटक जाते हैं, रुक जाते हैं। परमात्मा के परमप्रेम के, उत्तम वात्सल्य के विशाल समुद्र में हम समाजाते हैं। __ लोगुत्तमाणं पद का भाव समझाते हुए महायोगी आनंदघनजी महाराज अजितनाथ भगवान के स्तवन में
कहते हैं
तरतम जोगे रे तरतम वासना
वासित बोध आधार रे। , प्रथम लाईन में वासना का अर्थ पूर्वजनित संस्कार है। जो वसता हैं वह वासना है। मन, वचन, काया के तरतम योगोंद्वारा उत्पन्न होते हुए आंदोलन भीतर तरतम स्वरुप में वास करते है। पहले तरतम भाव आते हैं बाद में तरतम जोग बनते हैं और उसके बाद तरतम वासना बनती हैं। यह एक सैद्धांतिक बात हो गई। इसी आधारपर सिद्धांत को जब प्रयोग में रखते हैं तब वह एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया बन जाती है। महायोगीने इसी भाव को नीचे की