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का स्वरुप उपभोग न किया जाय तब तक उसका मूल्य समझना मुश्किल है। उन परमपुरुष के अतिश्रेष्ठत्त्व को लौकिक बनाकर ही उसका उपभोग हो सकेगा। जो पुरुष लोकोत्तर या अलौकिक हो उसे लौकिक कैसे बनाया जा सकता है? ऐसा प्रश्न सहज और स्वाभाविक हो सकता है।
____ हमारे इस प्रश्न का समाधान करते हैं हमारे गणधर भगवंत। उनका कहना हैं, परमात्मा लोकोत्तर है अलौकिक है। जो अलौकिक होता है वह कभी लौकिक नहीं हो सकता। हम जो लौकिक है उन सब में अलौकिकता निहीत होती है। वह अलौकिकता अंशात्मक रुप में प्रगट हो जाती है तब हमें लोकोत्तर पुरुष, लोकोत्तम स्वरुप में प्राप्त होते है। लोकोत्तर पुरुष के साथ का हमारा संबंध हममें अलौकिकता प्रगट कर सकता है। हमारे भीतर जो हमारी स्वायत्त सत्ता है वह लौकिक बन गई होती है। उसमें लोगुत्तमाणं स्वायत्त सत्ता में रही हुयी अलौकिता की अनुभूति कराते हैं। इस शक्यता का के कारण ही महापुरुष लोगुत्तमाणं पद से पूजे जाते हैं। पुरुष व्यक्तिचेतना देता है। पुरुषोत्तम उसे उत्तम चेतना में बदलते हैं और लोकोत्तम उसे विश्व चेतना से भर देते हैं।
___ जीव और अजीव दोनों की अपनी एक स्वायत्त सत्ता होती है, फिर भी पदार्थ कभी भी जीव में परिवर्तित नहीं हो सकता। जिस तरह यह पाट जिसपर बैठकर प्रवचन दिया जाता है। यदि इसपर कई दिनों या महिनों तक कोई नहीं बैठा तो पाट कभी नहीं सोचेगा, शिकायत भी नहीं करेगा और न कभी किसीको बुलाएगा। आप आओ, बैठो और मुझपर प्रवचन करो। पाट की ऐसी भी ताकत नहीं हैं कि मैं जहाँ हूँ वहाँ आकर मेरे नीचे बैठ जाए। पाट जहाँ होता है वही रहता है। मैं चैतन्य सत्ता हूँ। मेरे भीतर मेरी स्वायत्त सत्ता होती है। यह सत्ता अन्य पदार्थों के साथ अपना प्रास बनाती है। तब यह पाट हमारे बैठने का साधन बन जाता है। इसीतरह यह उपाश्रय जड है। इसमें बैठकर अनेक आत्माएं स्वयं की चैतन्य सत्ता का अनुभव कर सकते हैं। अनेक आत्माओं के सहज स्वभाव का आश्रय बना हुआ यह उपाश्रय आखीर बना तो इंट, मिट्टी, चूने से ही है। आप अभी जिस मकान से आ रहे हो वह ब्लॉक भी इंट, मिट्टी, चूने से ही बना हुआ होता है। फिर उसे घर और इसे उपाश्रय क्यों कहा जाता है? हमारे भीतर के स्वायत्त चेतना ने ये भेद किया है। जिसमें रहते हैं, खाते हैं, पीते हैं, सोते है, आराम करते हैं उसे घर कहते
और जिसमें बैठकर धर्म चर्चा होती है। जहाँ बैठकर हम आत्मा के नजदीक हो सकते हैं उसे उपाश्रय कहते है। है तो सब मकान परंतु हमारे व्यवस्था के अनुसार उसका नामकरण होता है।
पदार्थ में ऐसी कोई ताकत नहीं है कि हमें आराधना का आंमत्रण दे कि आओ व्याख्यान शुरु हो रहा है। कोई भी जड पदार्थ स्वयं की ओर से सक्रिय नहीं होता है। हमारी स्वायतसत्ता पदार्थ के साथ संयोग करती है, संबंध करती है और उसका स्वीकार करती है। अब हम पदार्थों के साथ के हमारे संबंध की दूसरी पर्याय देखते हैं। जब हम इस निर्णयपर आते हैं कि हमारी क्रिया से पदार्थोंपर कोई असर नहीं होता जैसे कि कितने ही प्रवचन हो जाए पाट पर उसका कोई प्रभाव नहीं पडता। कितनी भी सामायिक करों आसन को कोई फरक नहीं पडता। कितनी भी मालाएं फेरो माला में कुछ परिवर्तन नहीं होता। फिर भी हमारी मान्यता में उसका महत्त्व क्यों है? पदार्थ को वापर ने से पदार्थपर भले ही कोई प्रभाव न हो परंतु उसका उपयोग करने से हमपर प्रभाव अवश्य होता है। जैसे कि आप