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नमोत्युणं लोगुत्तमाणं नम्मोत्युणं समणस्स भगवओ महावीररस लोगुतमाणं
लोगुत्तमाणं अर्थात् स्वयं स्वीकृत अनुशासन। लोगुत्तमाणंअर्थाविश्वकृतशासन। लोगुत्तमाणं अर्थात सष्टिकीसरक्षाका सर्वेक्षण। लोगुत्तमाणंअर्थात् विश्वचेतनाकासंरक्षण। लोगुत्तमाणं अर्थात् संपूर्ण ब्रह्मांड की मैत्री का मंगलाचरण।
यदि हमें कोई पूछे कि लोक में उत्तम क्या है? तो हमारा क्या उत्तर हो सकता है? उत्तर यदि एक हो और शास्वत हो तो वह उत्तम है। यदि उत्तर अलग अलग होते है तो वे उत्तर नहीं अभिप्राय कहलायेंगे। हम जानते हैं हम उत्तर नहीं अभिप्राय दे सकते हैं। भगवान महावीर ने आचारांग सूत्र में कहा हैं - अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे। एक मनुष्य के अनेक चित्त होते हैं। प्रत्येक चित्त में अनेक अभिप्राय होते हैं। इसलिए हम अभिप्राय की झंझट से. हटकर महापुरुष कथित लोगुत्तम का स्वरुप जानने का प्रयास करेंगे। ऐसा सोचनेपर उत्तर स्पष्ट हैं कि लोक में उत्तम चार है - अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवलि प्ररुपित धर्म। नमोत्थुणं लोगुत्तमाणं अर्थात् इन चारों के चरणों में नमस्कार, स्वीकार, साकार और साक्षात्कार।
उत्तम अर्थात् श्रेष्ठ। जगत् में उससे अधिक श्रेष्ठ कुछ न हो उसे लोकोत्तम कहते है। सामान्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसेतीन स्तर होते हैं। जैसे श्रेष्ठ सामान्य डिग्री है। जब दो-तीन चीज में यही एकमात्र श्रेष्ठ है ऐसा कहते हैं उसे श्रेष्ठतर कहते है, इसे मध्यम स्तर कहते हैं। जिसकी किसी के साथ तुलना नहीं हो सकती उसे श्रेष्ठतम कहते है। लोगुत्तमाणं पद द्वारा लोकोत्तमता प्रगट करने से पहले गणधर भगवंत हमें कहते हैं कि, बोलो लोक में उत्तम क्या है? उत्तर में हमें कहना हैं, प्रभु आप हमें ऐसा प्रश्न मत पुछो। क्योंकि हम तो लोक में कितने ही पदार्थों को उत्तम मानने की शक्यतावाले हैं। हरपल बदलते अभिप्रायों के साथ हमारी उत्तमता जुडी हुई होती है। हम कैसे आपको उत्तर दे सकते हैं कि उत्तम क्या है?
हमारे इस उत्तर को सुनकर गणधर भगवंत ने कहा लोक में उत्तम तत्त्व मात्र एक ही है। उसे समझने की दृष्टि चार होती है। इस कारण यह तत्त्व चार महादृष्टि स्वरुप में मांगलिक के रुप में अवतरित हुआ। सत्त्व संपन्न परमपुरुष, महापुरुष या तत्त्वपुरुष के स्वरुप में प्रभु के दर्शन करके लोक में प्रभु को लोकपुरुष के रुप में जानने की इच्छा से गणधर भगवंत ने परमात्मा की लोकोत्तम स्वरुप में उपासना की। परमातमा के लोकोत्तम स्वरुप का स्वीकार करने पर परामात्मा के लोक अर्थात् हमारे साथ के संबंध की चर्चा का प्रारंभ होता है। उन उत्तम स्वरुप का लौकिक स्वरुप के रुप में हमारे साथ किस तरह से संबंध है यह हमारे लिए महत्त्वपूर्ण मननीय विषय है। परमात्मा कोई उत्तम पदार्थ नहीं है कि उसका मूल्य किया जाय, बेचा जाय या खरीदा जाय। जब तक परमात्मा की उत्तमता