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की जो स्थिति होगी वह तुमने स्वप्न में देखी है। वत्स ! हाथी सत्ता का प्रतीक है। चाहे वो राज्यसत्ता हो, धर्मसत्ता हो या समाजसत्ता लेकिन वह सुरक्षित नहीं रह पाएगी। राज्यसत्ता क्षत्रियों के हाथ में नहीं रहेगी। धर्म सत्ता मानवता की भावनाओं से शून्य होगी। हीन भावनाएं बढ जाएगी। सत्ता के लिए छीना-झपटी होगी। इस सत्ता की बंदर बाँट भी होगी। सत्ताधिकारियों में चारित्र्यवान, ईमानदार आदमी नहीं मिल पाएंगे। यह सबकुछ भगवान महावीर के निर्वाण के बाद होगा।
जिसतरह हाथी समृद्धि और पूजा में प्रमुख रुप में रहा है उसीतरह वास्तु में भी उसका महत्त्व रहा है। वास्तुदोष निवारण में भी क्रिस्टल हाथियों का अग्रिम स्थान रहा है। हाथी और कमल इनका निकट का संबंध रहा है। कईबार हाथी अपनी सूंड में कमल उठाकर भगवान को चढाता है। जिस हाथी के उपर अंबाडी होती है उस हाथी को ऐरावत हाथी कहते है। पूर्व दिशा के पालक इन्द्र का वाहन ऐरावत है। वास्तु समृद्धि में ऐरावत का बहुत मूल्य रहा है। ग्रहशांति, संतति दोष निवारण और आरोग्य प्राप्ति हेतु घर के पूर्व विभाग में आठ हाथियों को खडा रखने का विधान है। पति-पत्नी में अनबन हो तब हरे रंग के हाथी शय्या के दोनों तरफ इस तरह से रखने चाहिए कि उनकी सैंडे शय्या की तरफ हो। व्यवसाय में व्यापारी को अपने टेबलपर ग्राहक की तरफ मुख किया हुआ हाथी रखना चाहिए। यदि पिता-पुत्र, या भाई-भाई में वार्तालाप बंद हो तो स्फटिक का हाथी घर की तरफ सुन रहा हो इस तरह से रखना चाहिए।
पुरुषोत्तमाणं आदि चार पद की स्तोतव्य संपदा कहते है। तीर्थंकर प्रभु अनादि भवों से अर्थात् अनादि काल से उत्तम हैं इस जन्म के च्यवनकल्याणक और जन्म कल्याणक उत्तम है इसलिए प्रथम पद पुरुसोत्तमाणं है। दीक्षा काल में उत्तम शौर्यता के साथ सामायिक चारित्र्य से पुरिससीहाणं पद की सार्थकता मानी जाती है। वीतराग (यथाख्यात) चारित्र्यकाल में शासनको शोभायमान करते हुए निर्लेपभाव और अभेद संबंध की अनायास सहज धर्मप्रभावना पुरिसवर पुंडरियाणं पद को सुशोभित करता है। शासन में उपद्रव निवारक धर्म प्रभावना और सवीर्य निर्दोष चारित्र्य प्रभावना से पुरिसवर गंधहत्थीणं पद स्तोतव्य संपदा की सार्थकता प्रदान करता है।
अब गहरी गहरी लंबी साँस लीजिए। सीधे बैठिए। आँखें बंद कीजिए। सामने से एक विशालकाय हाथी मस्ती में झूमता हुआ आ रहा हैं। उसकी सूंड में कमल है। उसके कुंभस्थल से मद श्रावित हो रहा है। आश्चर्य से आप उसे देख रहे है। देखते देखते वह परमात्मा का रुप धारण कर लेता है और पास में खडे परमवत्सल सवरुप संतपुरुष आपके मस्तक पर हाथ रखकर कहते हैं, वत्स! इन्हें पहचाने नहीं? ये हैं पुरिसवर गंधहत्थीणं। इनके मद में है वीर्य संपन्न चारित्र्य। महाव्रत या अणुव्रत, सागारधर्म या अणगारधर्म का मद के द्वारा दान दे रहे हैं। सुव्रतों को धारण करो। आत्मशुद्धि करो। मन को निर्मल और पवित्र करो। परमात्मा के साथ उनका परिचय देते हुए गणधर भगवंत परम करुणा से आत्मा को भावित कर रहे है। परम करुणा का पान करते हुए परमात्मा की लोकोत्तमता को गणधर भगवंत के मुख से सुनकर परम मंगल स्वरुप लोगुत्तमाणं का आव्हान करते हुए एक साथ बोलेंगे।। नमोत्थुणं पुरिसवार गंधहत्थीणं ।।।।।। नमोत्थुणं पुरिसवर गंधहत्थीणं ।। मन्मोत्थुणं पुटिसवर गंधहत्थीणं ।।।
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