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भोजन को बैठे है, दाल में थोडासा नमक कम है तो भोजन के स्वाद में फरक पडेगा या नहीं..? स्वयं दाल या नमक में कोई फरक नहीं है परंतु हममें फरक है। भोजन करते करते एक छोटीसी तीखी मिरची आजाय तो आप पर कितना प्रभाव छोडेगी। संज्ञी पंचेन्द्रिय आप एकेन्द्रिय मिरची से घबरा गए ? सोचिए मिरची आपको कभी नहीं कहेगी कि आप मेरा उपभोग करो। हम स्वयं ही यह सबकुछ करने की चेष्टा करते है और चंचल होते हैं।
गणधर भगवंत कहते हैं कि संपूर्ण लोक ऐसी चंचलता से भरा हुआ है। अनादि काल से जीव पदार्थों के साथ संयोग करता हुआ चंचल होता रहा है। इसीलोक में उत्तम पुरुष पदार्थ के साथ के संयोग को जानते हैं, देखते हैं और अनुप्रेक्षा करते हैं। देह और आत्मा के भेद विज्ञान से साधना का प्रारंभ होता है और मोक्ष इसका अंत है। यही मोक्ष का मार्ग है और स्वयं मोक्ष स्वरुप है उसका अनुभव करता है। यह है परमपुरुष की उत्तमता। इसी कारण परमात्मा पुरुषोत्तमाणं कहलाए।अब यहाँपर लोगुत्तमाणशब्द का प्रयोग हुआ है। ये दोनों पद बराबर लगते हुए भी इन दोनों में अंतर है, तभी तो गणधर भगवंत ने दो पदों की संरचना की हैं। पुरुषोत्तमाणं पद में पुरुषों में अर्थात् हममें परमात्मा उत्तम हैं फिर लोगों में उत्तम कहने की क्या आवश्यकता है? लोग अर्थात् संसार, जो शिशा है, आईना है, दर्पण हैं जिसमें हमें स्वयं को देखना है। पुरुषोत्तमाणं में हमारी व्यक्ति चेतना झलकती है और लोगुत्तमाणं में विश्व चेतना झलकती है। परुषोत्तमाणं वह हैं जो हमारे साथ रहता है। लोगुत्तमाणं वे है जो विश्व के साथ रहते हैं। हैं तो हम भी विश्व में परंतु प्रत्येक स्वायत्त सत्ता का अपना एक विश्व होता है। स्वचेतना स्वयं ब्रह्मांड में व्याप्त होती है संबंध करती है आकर्षण, अपकर्षण करती है। इसतरह अनादि काल से उसका संसार जन्म मरण के साथ चलता रहता है।
जोलोक में उत्तम हैं वेलोगत्तमाणं है। जो लोगों में उत्तम हैं वे लोगुत्तमाणं है। लोक में जो कुछ भी उत्तम हैं उसे प्राप्त करवाते हैं वे भगवान हैं। लोक में जो कुछ भी उत्तम हैं उसका रक्षण करते हैं वे भगवान हैं। लोक में जो कुछ भी उत्तम और सुरक्षित हैं उसे संवर्धित करते हैं वे भगवान हैं। लोक में जो उत्तम हैं उसे इकट्ठा करते हैं वे इन्सान हैं।
हम पर्युषण में लोगस्स की चर्चा कर रहे थे। लो अर्थात् लोक, गअर्थात् गति करना उसके बाद दो स आते हैं एक आधा स्और दूसरा पूर्ण स।आधा स्अर्थात् वे जिनका अर्ध सत्त्व प्रगट है और अर्ध सत्त्व अप्रगट है। पूर्ण स अर्थात् पूर्ण सत्त्व संपन्न, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी। अब आधे स में हमें स्वयं को संस्थापित करना है अर्थात् लोग फिर आप और उसके बाद पूर्ण स आपके लेफ्ट सॉईड में लोग हैं अर्थात् लोक और गति है। आपकी राईट साईड में सत्पुरुष है। जब जब हमें सत्पुरुष मिलते है, परमपुरुष मिलते हैं तब-तब हमें उनकी उत्तमता का सहवास मिलता है। पर जब पदार्थ और परमाणु की ओर आकर्षीत होते है तब लोक में गति, परिभ्रमण करते रहते है। जब समझ में आता है तब समय की दुषितता बताते है। यह तो पंचम काल है। मोक्ष तो है नहीं। यहाँ तो ऐसा ही चलने वाला हैं। 150, 200, 500 रुपए की टिकट लेकर ट्रेन में बैठते हैं। किसी कारण से अपनी सीटपर से उठनेपर कोई बैठ जाए
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