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जहाँ वीचरण करते है वहाँ का वातावरण सहजगंध से सुरभित होता है। तीर्थंकर केवली में वीर्यगंध होती है। यह वीर्यगंध तीर्थंकर के तीर्थत्त्व के साथ जुडी हुई होती है। अष्टमहाप्रातीहार्य, चौंतीस अतिशय, समवसरण आदि समृद्धियां और वैभव परमात्मा के वीर्यगंध का ही विस्तार है।
गंधहस्ती के साथ परमात्मा को उपमित करना एक उपक्रम हैं बाकी वीर्यगंध तो परमात्मा के अतिरिक्त किसी के होती नहीं है। हाथीयों में गंधहस्ती हाथी का विशेष और महत्त्वपूर्ण प्रकार है। इसलिए भारतीय साहित्य हाथी की गौरवगाथा से भरा हुआ है। भले ही फिर वह रणकथा हो या पुराणकथा हो। राजसीय भक्ति हो या राजसीय विभुति हो। स्वप्नशास्त्र, धर्मशास्त्र या शकुनशास्त्र सर्वत्र हमारे हाथीभाई व्याप्त है।
इस चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान की माता प्रथम मोक्ष गामीनी मरुदेवी माता का भव्ययात्रा का अंतिम वाहन हाथी था। यही हाथी अजीतनाथ भगवान के चरणों का लांछन (चिन्ह) बनकर संपूर्ण भरतक्षेत्र की शोभा, विजय और पूजा का गौरव माना जाता है। भगवान महावीर के स्वागत के लिए भक्तियात्रा का आयोजन करनेवाले भद्धिलपुर नगरी के दशार्णभद्र राजा का गौरव हाथी था। अपने प्रिय हाथी के साथ विशाल शोभायात्रा के साथ भगवान के समवसरण में अपने गौरव का प्रतीक पहुंचाकर अपरंपार गरिमा का अनुभव कर रहे थे। उनके अहं को देखकर शक्रेन्द्र ने सामने से एक वैभव संपन्न विशालकाय हाथी को उतारा जिसके 1008 मुख थे। एक-एक मुख में 108 दंतशूल थे। आगे आप कथा जानते ही है। एक-एक दंतशूल पर वापिकाए, हर वापिकाओं में कमल, हर कमल में देवगण नृत्य कर रहे थे। ऐसे अद्भुत हाथी को देखकर दशार्णभद्र राजा शरमा गए, भरमा गए, क्षुभित हो गए। आप जानते हैं न वैभव की प्रतिस्पर्धा हो सकती है परंतु भक्ति और विरती अप्रतिबाधित है। बस राजा के भीतर जो अंहकार का हाथी था। वह पहचाना गया। राजसी हाथीपर से उतरकर भगवान के चरणों में नमस्कार किया तो प्रभु ने कहा, शक्रेन्द्र का हाथी देखकर क्षोभ का अनुभव न करो। राजनी हाथीपर से उतर गए हो पर तुम्हारे भीतर जो अहंकार का हाथी है, वह खतरनाक हैं। उसपर से नीचे उतरो राजन् ! सारा नजारा बदल जाएगा। तुम बदल जाओगे। परमात्मा की देशना सुनकर राजा का भीतर खुल गया। अहंकार टूट गया। भावों से खुलकर प्रभु चरणों में नतमस्तक हो गए। विरति धर्म का स्वीकार किया। स्वर्ग के स्वामी स्वयं सर्वविरतिधारी दर्शाणभद्र मुनि के चरणों में नतमस्तक हो गए।
ऐसा ही एक अन्य उदाहरण महान विभुति मुनि बाहुबली की ध्यान साधना का है। ध्यान साधना मे अहंकार बाधक है। इसे मानकषाय का प्रतीक माना गया है। जैन कथा साहित्य में यह एक प्रसिद्ध कथा है। बाहुबली भगवान ऋषभ देव के पुत्र थे। उनकी दो पुत्रियां ब्राम्ही और सुंदरी थी। साधना काल में बाहुबली जी घाताकर्म के क्षय की चरम सीमा तक पहुंचते पहुंचते अहंकार के कारण अटक गए थे। केवलज्ञान प्राप्त होने में कदमभर बाकी था। भगवान ऋषभदेव ने अपने ज्ञान में इस घटना को देखा बाहुबलीजी को बोधान्वित करने उन्होंने ब्राम्ही सुंदरी के साथ मेसेज भेजे थे। मेसेज लेकर गयी दोनों बहनों ने अपने ध्यानस्थ भाई को - वीरा! म्हारा गजथकी उतरो रे...इस तरह यह हाथी बिना वाहन का वाहन बनकर बाहुबली जी को उपर भी चढाया, नीचे भी उतारा और इतिहास में अंहकार रुप कलंक का साक्षी बन गया।
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