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नमोत्थुणं पुरिसवर गंधहत्थीणं
हस्ती उसे कहते है जो स्वयं की मस्ती में रहता है। गंधहस्ती उसे कहते है चाहे कितने ही मदमस्त हाथी हो परंतु एक गंधहस्ती वहाँपर पहुंच जाए तो सभी हाथियों का मद जर जाता हैं। गंधहस्ती को कभी किसी के साथ लडना नहीं पडता हैं। केवल गंधहस्ती की उपस्थिति मात्र काफी होती है। गंधहस्ती की गंध मात्र से सारे हाथी हस्तीशाला से बाहर निकल जाते है। तीर्थंकर परमात्मा को गंधहस्ती की उपमा इसलिए दी गयी है कि परमात्मा के विहार के स्पर्श के पवन की गंध मात्र से आस पास के सव्वासो जोजन में शत्रु सैन्य का उपद्रव, दुष्काल का उपद्रव, मार मरकी के उपद्रव रुप, क्षुद्र हाथी दूर से ही भग जाते है । उनको भगाने के लिए परमात्मा को किसी अन्य मंत्र की उपासना या प्रयास करने नहीं पड़ते हैं।
गंधहस्ती के साथ की उपमा तो सामान्य रुप से हमने देखी परंतु हमारे भीतर जब पुरिसवर गंधहत्थीणं प्रवेश होता है। ध्यान शुरु हो जाता है। विषय कषाय रुप, विचार - विकल्प रुप सारे विकार अपने आप शांत हो जाते हैं। जैसे गंधहस्ती के हस्तीशाला में आगमन होनेपर अन्य हाथी खंभे तोडकर भग जाते हैं। जटिल श्रृखंलाएं खुल जाती हैं। वैसे ही इस ध्यान से भवांतरो से चला आ रहा गाढ मित्थात्त्व टूट जाता है। जटील ऐसी ग्रंथिया खुल जाती हैं।
पुरिसोत्तमाणं पद मंगलदायक है । पुरिससीहाणं पद शूरताप्रदायक है । पुरिसवर पुंडरियाणं सौंदर्यवर्धक और सर्जनात्मक है। पुरिसवर गंधहत्थीणं पद उत्तेजनात्मक है। पुरिस और गंधहस्ती शब्द के बीच में जो वर शब्द दिया गया है वह अपना एक अलग महत्त्व रखता है। वर अर्थात् श्रेष्ठ यह तो आप बिल्कुल समझ गए। फिर भी कल के प्रवचन के बाद बहनों को इस श्रेष्ठता के बारे में पूछा गया तो खुश हो गई। कहने लगी, कौनसी चीज कब अच्छी लगती है इसका ज्ञान तो हमें बहुत होता है। साडी जब तक बाजार में होती है स्टँडपर लटकी होती है तब तक उसकी उत्तमता का परिचय नहीं होता है। जो साडी बजेट में फीट हो जाती है, पॉकेट में सेट हो जाती है वह श्रेष्ठ बन जाती है। दूसरी महिला ने कहा, इतना ही नहीं वह साडी जब पहनी जाती है तभी उसकी सही किंमत होती है। इतना ही नहीं पहननेपर किसीने पूछ लिया कितने की है? यदि कहा 400 रु. की तो सुनने वाले की आँखे चमकने लगी यह तो बडी सस्ती हैं बाकी हमनें इसे 600 रु. की देखी बस इतना सुनकर ही हमारी बहनों का रुबाब बढ जाता है। बहनें कहती हैं, हमारी पर्सनॅलिटी इसीसे बनती है। मैं आपसे पूछती हूँ कि, व्यक्तित्त्व 'व्यक्ति से बनता है या वस्तु से ?
गंध के दो प्रकार है। पौद्गलिक और चैतसिक। पौद्गलिक गंध के दो प्रकार है - सुरभिगंध और दुरभिगंध । पौद्गलिक होने के कारण ये घ्राणेन्द्रिय का विषय होकर आत्मा में पौद्गलिक परिणति करता है। चैतसिक गंध के दो प्रकार है - आमगंध और निरामगंध। आम अर्थात् दोषित चारित्र और निराम अर्थात् निर्दोष चारित्र । परमात्मा निरामगंध कहलाते हैं। निर्दोष चारित्रवाले होते हैं। इसे सरलता से समझाते हुए ज्ञानी पुरुष कहते हैं - आमगंध
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